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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय संवरको रूप धरै साधे शिवराह ऐसो ,
ज्ञानी पातशाह ताको मेरी तसलीम है।" इनकी रचना नाटक सभपसार अध्यात्म अमृत रससे पूर्ण अनुपम कृति है। यह कविको प्राणपूर्ण लेखनीका प्रसाद है कि ब्रह्मविद्राका प्रतिपादन शुष्क न होकर अत्यन्त सरस, आह्लादजनक तथा आकर्षक बना है । अन्य विषयमें स्वयं कविका कथन कितना अंतस्तलको स्पर्श करता है -
"मोक्ष चढ़वेको सोन, करमको करै बौन , जाफे रस भौन बुद्धि लोन ज्यों घुलत है। गुनिनको गिरंथ निरगुनीनको मृमम पंथ , जाको जस कहत सुरेश अकुलत है। याहीके सपक्षी सो उड़त ज्ञान-गगन मांहि, पाहीके विपक्षी जमजालमें हलत हैं। हाटक सो विमल विराटक सो विस्तार ,
नाटकके सुने हिए फाटक यों खुलतु हैं।" यह अभिमानी प्राणी बात बातमें अपनी नाककी सोचा करता है, वह यह नहीं सोचता कि वस्तुत: यह नाक घोड़ेसे मांसका पिंड है, जिसका आकार 'तीन' सरोखा दिखता है। ऐसी नाकके पीछे यह न सो सद्गुरूकी आज्ञाका ही आदर करता है, और न यह विचारता है, कि मेरा स्वभाव पद पदपर लड़ाई लेना नहीं है । वह तो अपनी कमरमें खडग बांधकर अकष्टता हुआ 'नाक' की रक्षार्थ उद्यत रहता है । सुन्दर भावके साथ लालित्यप्रदुर पदावली ध्यान देने योग्य है
"रूपकी न झांक हिए, करमको डांक पिये, ज्ञान दबि रह्यो मिरगांक जैसे घनमें । लोचनकी ढांकसों न माने सद्गुरु हांक , डोलै पराधीन मूढ़ रांक तिहूं पनमें । टांक इक मांसकी डली-सी तामें तीन फांक , तीनको सो आंक लिखि राख्यो काह तन में। तासों कहें 'नांक' ताके राखिबेको कर कांक ,
लोकसों खरग बांधि बांक धरै मनमें ।।" यह जीव अनादिसे शरीरको अपना मान रहा है, उसे अत्यन्त सुबोध तथा हृदयग्राही उदाहरण द्वारा इन भव्य शब्दों में समझाते हैं
"जैसे कोऊ जन गयो धोबीके सदन तिनि ; पहर्यो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है ।