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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय
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आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किस अवस्थामें होता है, इस पर स्वामी पपाद कहते हैं— 'जब अन्तःकरण-जल राग-द्वेष, मोहादिको लहरोंसे चंचल नहीं रहता है, तब साधक आत्मतत्वका साक्षात्कार करता है । अन्यलोग उस तत्वको नहीं जानते है ।
उनका यह भी कथन है कि इस शरीर में आत्म-दृष्टि या आत्मचिंतनाके कारण यह जीद शरोरन्तर धारण करनेके कारणको प्राप्त करता है | विदेहस्वकी उपलब्धि-शरीर रहित अपने आत्म स्वरूपकी प्राप्ति का बीज है आत्मा में ही
आत्मभावना धारण करना ।
इप्टोपदेशमें कहा है-"तस्त्रका निष्कर्ष है— जीव पृथक् है और पुद्गल भी पृथक है। इसके सिवाय जो कुछ भी कहा जाता है, वह इसका ही स्पष्टीकरण है "
इस कारण आत्मज्ञानी ऋषि कहते हैं- - जिस उपाय से यह जीव अविद्यामय अवस्थाका परित्याग कर विद्यामव-ज्ञानज्योतिमय स्थितिको प्राप्त कर सके, उसकी ही चर्चा करो, दूसरोंसे उसके विषय में पूछो, उसको ही कामना करो । इतना ही क्यों इसी विषय मन भी हैंगओ
आत्माका स्वरूप वाणीके अगोचर है अतः शुद्ध तात्त्विक दृष्टिसे कहते हैं fs आत्माको उपलब्धि के विषय में प्रतिपाद्य एवं प्रतिपादकपनेका अभाव है । आचार्य कहते हैं— 'जो में अन्योंके द्वारा शिक्षित किया जाता है, अथवा जो मैं दूसरोंका उपदेश देता हूँ । यथार्थ में यह अक्ष चेष्टा है; कारण मै विकल्पासीत वचन-अगोचर स्वभाव वाला हूँ ।
१. " रागद्वेषादिकल्लोलंरलो लं
यन्मनोजलम् ।
स पश्यत्यात्मनस्तत्त्वं सतत्त्वं नेतुरो जनः ॥३५॥" २. “देहान्तर्गतज देहेऽस्मिन्नात्मभावना ।
बीजं विदेहनिष्पत्तेः आत्मन्येवात्मभावना ॥७४॥ ३. "जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसो तत्त्वसंग्रहः 1 यदन्यदुच्यते किञ्चित् सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ||५०||” ४. "तद्भूयात् तत्परान् पृच्छेत् तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ ५३॥ | " ५. यत्परं प्रतिपाद्योऽहं यत्परान्प्रतिपादये ।
उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १९॥"
- स० त० ।
-स० तं ।
- स० तं० ।