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जैनशासन
संक्षिप्त लेख रूप वातायन द्वारा अत्यन्त स्थूलरूप से एक झलकमात्र दिखाना उचित समझा जिससे विशेष जिज्ञासाका उदय हो ।
अब हम कुछ अवतरणों द्वारा इस बातपर प्रकाश डालेंगे कि, जैन रचनाओंमें कितनी अनुपम, सरस, शांत तथा स्फूर्ति पूर्ण सामग्री विद्यमान है ।
अमृतचन्द्रसूरि अपने आध्यात्मिक ग्रन्थ नाटक समयसार ने लिखते हैं'जब तात्त्विक दृष्टि उदित होती हैं. तब यह बात प्रकाशित होती है कि आत्माका स्वरूप परभाव से भिन्न है, वह परिपूर्ण है, उसका न बारम्भ है और न अवसान है । वह अद्वितीय है, संकल्प-विकल्प प्रपंचसे वह रहित है ।'
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आत्मा अमर है, इस विषय में अमृतबन्द सूरिका कितना हृदयग्राही स्पष्टीकरण है ? वे कहते हैं- प्राणोंके नाशका हो तो नाम मृत्यु है । इस आत्माका प्राण ज्ञान है, जो अविनाशी रहनेके कारण कभी भी विनष्ट नहीं होता । इस कारण आत्माका भी कभी मरण नहीं होता। अतः ज्ञानी जनको किस बातका डर होगा ? वह निर्भयतापूर्वक स्वयं सदा स्वाभाविक ज्ञानको प्राप्त करता है ।
'जो.
पूज्यपाद स्वामी कितनी उज्ज्वल तथा गंभीर बात कहते हैंपरमात्मा है, वही मैं हूँ, (आत्मपना दोनों में विद्यमान है) जो में हैं, वही परमात्मा है । ऐसी स्थिति में मुझे अपनी आत्मा की ही आराधना करना उचित है, अन्यको नहीं ।'
बुषजनजी लिखते हैं
"मुझमें तुझमें भेद यों, और भेद कछु नाहि । तुम तन तज परब्रह्म भए, हम दुखिया तन मांहि ॥"
१. "आत्मस्वभावं परमावभिन्नमापूर्ण माद्यन्तविमुक्तमेकम् । विलोन संकल्पविकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥ '
३.
२. " प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणा: किलास्यात्मनो । ज्ञानं तत् स्वयमेव शाश्वतमा नोच्छियते जातुचित् ॥ तस्यातो मरणं न किंचन भवेत् तद्भः कुतो ज्ञानिनो । निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥'
- सतसई ।
ना० स० १० ।
- ना० स० ६।२७ ।
"यः परमात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्वतः ।
अहमेव मयोपास्यो नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ।" - समातिन्त्र २१ ।