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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय
२७५ फरेगा, वह अभय अवस्था तथा आनन्दका उपभोग करेगा । जो अन्यको कष्ट दंगा, उसे विपत्ति की भीषण दादाग्निमें भस्म होना पड़ेगा। जिसे कल्याण चाहिये, उसे पूर्वोक्त सदुपदेशको ध्यान में रखना चाहिये । __ लोग अपनी आत्माको भूल जाते है। अन्योंका परिशीलन और तपःसाधनामें अपनेको कृतकृत्य समझते है। ये यह नहीं सोपते, कि बिना इकाईके अकेले शून्योंका भी कुछ मूल्प या महत्व होता है ? इस दृष्टिको भाचार्य महाराज कितनी सष्टताके साथ बताते है
__जिसके हृदयमें निर्मल आरमाका यास नहीं होता; तत्त्वतः क्या शास्त्र, पुराण एवं तपश्चर्या उसे निर्वाण प्रदान कर सकती है ?'
'यथार्थमें निर्वाण प्राप्तिको प्रथम सीढ़ी आत्मदर्शन है । आत्म-दर्शन, आत्मअवबोध तथा आत्मनिमग्नताके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है'।
पाहत दोहामें रामसिंह मुनि आत्मबोधको परमकला बताते हुए कहते हैं
"'अक्षरारूढ़ स्याही मिश्रित (अन्योंको) को पढ़ पढ़कर तू क्षीण हो गया, किन्तु तूने इस परमकलाको नहीं जाना, कि तेरा उदम कहाँ हुआ और तू कहां लीन हुमा ।' जीवन अल्पकाल स्थायी है, अतः उपयोगी और कल्याणकारी चाइमयका हो अभ्यास करना चाहिये । इस विषय में कवि कहते है____ "शास्त्रोंका अन्त नहीं है जीवन अल्प है, और अपनी बुद्धि ठिकाने नहीं है। अतः वह बात सीखनी चाहिये, जिससे जस और मरणके पंजेसे छुटकारा हो जाय ।"
मोही प्राणीको पुनः प्रबुद्ध करते हुए कहते हैं
"देख माई ! विषयसुख तो केवल दो दिनके है, और पुनः दुखको परिपाटीपरंपरा है । अरे आत्मन् ! भूलकर भी तू अपने कंधेपर कुल्हाड़ी मत भार ।" १. "अप्पा णियमणि णिम्मलउ, णिपमें वसइण जासु । __ सत्यपुराणई तव चरणु, मुस्खु जि करहि कि तासु ॥९९॥"
-परमात्मप्रकाश । २. "सम्मग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" -त. सू० ११ । ३. "अकादरचडिया मसि मिलिमा पाढतो गम खोण ।
एक्क ण जाणी परमकला कहिं उग्गउ कहि लोण ॥१७३॥" ४. "अन्तो गरिय सुईणं कालो थोवो वयं च दुम्मेहा ।
तं गवर सिनिस्खयन्वं जि जरमरणश्वयं कुणहि ! १९८॥" ५. "बिसयसुहा दुइ दिवहड़ा पुणु दुक्खहं परिवाहि ।
भुल्लउ जीव म वाहि तुह अध्यावधि कुहारि ॥१७॥"