Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 280
________________ जैनशासन gent स्वामीकी यह उक्ति बहुत गायिक तथा तत्वस्पर्शी है१ जो पदार्थ जीवका उपकारी होगा, अर्थात् जिससे आत्माको पोषण प्राप्त होता है, उससे शरीर की भलाई नहीं होगी। जिससे शरीरका पोषण या हित होता है, उससे आत्माका हित नहीं होगा । कारण दोनोंके हितोंमें परस्पर विरोधीपना है ।' २७२ इस आध्यात्मिक सत्य का प्रयोग भारतीय राजनीतिक क्षेत्र में भी ज्योति प्रदान करता था । भारतीय हित और विदेशियों के कल्याण में परस्पर संघर्ष था । अतः जिन बातों से भारतकी भलाई होती थी, उनसे विदेशियोंके स्वार्थका विद्यात होता था, तथा जिनसे विदेशियोंकी स्वार्थपुष्टि होती थीं, उनसे स्वदेशका अहित होना अवश्यम्भावी था । ज्ञानार्णवकार प्रत्येक आत्माको अपरिमित शक्ति, अनिन्द तथा ज्ञानका अक्षय भण्डार बताते हुए कहते है "अनन्तवीर्यविज्ञान- दुगानन्दात्मकोऽप्यहम् । आत्मविद्याकी उपलब्धि के विषयमें योगीश्वर पूज्यपाद का कथन है*- 'जैसे जैसे स्वरूपके अवबोधका रम प्राप्त होने लगता है. वैसे वैसे प्राप्त हुए भी विषयऔर अच्छे नहीं लाने सम्राट् भरतेश्वरको आत्म चिन्तन में जो रस प्राप्त होता था, वह राजकीम वैभव के द्वारा लेशमात्र भी नहीं प्राप्त होता था । तत्त्वका सम्यक् बोध होनेपर विवेकी जीवकी परिणतिमें एक नवीन स्फुरण होता है । विश्वके लोकोत्तर वैभवका अधिपति भरत प्रभातमें जगते ही १. " यज्जीवस्योपकाराय तद्देहस्यापकारकम् । यद्देहस्योपकाराय तज्जीवस्थापकारकम् || " २. " यथा यथा समायाति संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम् । तथा तथा न रोचन्ते विषयाः सुलभा अपि श" ३. "प्रातरुन्मीलिताक्षः सन् संध्यारागारणा दिशः । सदा भोजणेवानुरजिताः ॥ ११६ ॥ प्रातरुद्यन्तमुद्भूतनं शान्तमसं रविम् । भगवत्केवलार्कस्य प्रतिविम्वममस्त सः ॥ ११७|| " "प्रातरुत्थाय धर्मस्थः कुतधर्मानुचिन्तनः । तन्नोऽर्थकामसंपत्ति सहामात्यन्यरूपयत् ॥४१ १२०॥ | r - इ० उ० १९ । " एव धर्मप्रियः सम्राट् धर्मस्यानभिनन्दति । मस्येति निखिलो लोकस्तदा धर्मे रतिं व्यधात् ॥१४१, ११०॥ - ३० उ० ३७ । -महापुराण, जिन सेन

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