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पराक्रमके प्राङ्गण में
२३७ देवने अहिंसात्मक पर्मको प्रकाशित किया, जिसको पुनः पुनः प्रकाश में लानेका कार्य शेष २३ तीर्थंकरोंने किया। प्राचीनताके बंदकोंके लिए भी जैन सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण है।
__ पराक्रमके प्राङ्गणमें
कुछ लोगोंकी धारणा है कि अब सम्पूर्ण विश्व में वीरताफा कि यात्मक शिक्षा देने में ही मानव जातिका कल्याण है । मह युग 'Survival of the fitnest''जाको बल ताहीको राज' की शिक्षा देता हूमा यह बताता है कि बिना बलशालो बने इस संघर्ष और प्रतिद्वन्दितापूर्ण जगत्में सम्मानपूर्ण जीवन संभव नहीं । बलमुपास्व-शक्तिकी उपासना करो यह मंत्र आज आराध्य है । दीन-हीनके लिये सजीव प्रगतिशील मानव-समाजमें स्थान नहीं है । उन्हें तो मृत्युकी गोदमें चिरकाल पयंत विश्राम लेनेकी सलाह दी जाती है। जैन आचार्य बाबीसिंह सूरि अपने क्षरधूडामणिमें 'पौरभोग्या वसुन्धरा' लिखकर वोरताकी ओर प्रगतिप्रेमी पुरुषों का ध्यान आकर्षित करते है। हिन्दू शास्त्रवार इस दिशामें तो यहाँ तक लिखते है कि बिना शक्ति-संचय किये यह मानव अपने आस्मस्वरूपकी उपलरिध करने में समर्थ नहीं हो सकता । उनका प्रवचन कहता है "मायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ।" जनशास्त्रकारों ने इस संबन्ध में और भी अधिक महत्त्वकी बात कही है कि निर्वाण-प्राप्तिके योग्य अतिशय साधनाकी क्षमता साधारण निःसत्त्व दारीर द्वारा सम्पन्न नहीं होती, महान् तल्लीनता रूप शुक्ल-ध्यानकी उपलरिपके लिए बचशरीरी अर्थात् पञ्च वृषभ-नाराच-सहननधारी होना अस्यंत आवश्यक है।
that their real founder was older than Mahavira and that this sect preceded that of Buddha.'
-Religion of India by Prol. E. V. Hopking p. 283.
बौद्धोंने निर्ग्रन्थों (जैनों) का नवीन संप्रदायके रूपमें उल्लेख नहीं किया है और न उनके विख्यात संस्थापक नातपुत्तका संस्थापकके रूपमें हो किया है। इससे जैकोबी इस निष्कर्षपर पहुंचे हैं कि जनधर्मके संस्थापक
महावीरकी अपेक्षा प्राचीन है तथा यह संप्रदाय बौद्ध संप्रदायके पूर्ववर्ती है । १. "उत्तमसंहननस्म एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तमहत् ।'
-२० सूत्र ९।२७ ।