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पुण्यानुबन्धी वाङ्मय
२५७ धर्मकथाको सुनकर ममत् पुरुषों के चित्त में व्यथा उत्पन्न होती है, जैसे महाग्रहसे विकारी श्यक्तियोंको मन्त्र-विद्याके श्रवण द्वारा पीड़ा होती है' ।' अत एव महापशए पवित्र और हिपल शिराओं को देना अपना कर्तव्य समान है । लोकप्रशंसा अथवा विरक्तिका उनके सन्मार्गानुशासन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, उनका ध्येय प्रशंसाके प्रमाणपत्र संग्रह करना नहीं रहता है। उनका लक्ष्य सम्मानका प्रकाशन रहता है । जिमसेम स्वामी कहते हैं
"परे तुष्यन्तु वा मा वा कविः स्वार्थ प्रतीहताम् ।
न पराराधनात् श्रेय: श्रेयः सन्मार्गदेशनात् ॥" १-७६ 1 पाश्चास्योंके भारत-भूपर पदार्पण करनेयः अनन्तर देश-विदेदा में अन्य संग्रह तया उनके प्रकाशन, परिशीलन मादिना एक नयोन युग अवतरित हुआ। उस समय अन्य वाङ्मय तो प्रकाश में आया, किन्तु जर समाजने शुद्धताके विशेष ममत्त्ववक्ष, अथवा विमियों द्वारा ग्रन्थनाशकी भीति के कारण अपनी चमत्कारक अमूल्य कृतियोंको साहित्यिक कलाकारों के समक्ष लाने में अत्यधिक शैथिल्यका परिषम दिया, ऐमी ही सांप्रदायिक दृष्टि द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण जैन साहित्यकी रचनाएँ भी अन्य धर्मी बताई गईं। ईसाकी प्रथम शताब्दी में एलाचार्य (कून्दकुन्द द्वारा रचित जैन ग्रंथ 'कुरल' काध्यको एक तिरुवल्लुवर नाम के अछूत शूद्रकी कृति कहा जाता है। सौभाग्यसे प्रतिभाशाली विद्वान् प्रो० चक्रवर्तीने पन्धका अन्त परीक्षण करके ऐसी सामग्री उपस्थित की, कि जिसमे सत्य शोधकों को 'कुरल' को जैन रचना स्वीकार करना होगा। जैसे मंगलाचरणके पद्यमें किसी भी हिन्दू देवताकी वन्दना न करके उनको प्रमाण किया है "Hc who walked on lotus"-जो कमल पर चलते थे । जन पुराणोंमें यह बताया गया है, कि जिनेन्द्रले परणोंक नीचे देवन्द कमलोंकी रचना करते है । तामिल महाकाव्य नीलकेशीके जैन टीकाकार समय रिवाकर मुनिवर कुरलको "my own bible'' हमारा धर्मग्रन्य कहते हैं ।
सांप्रदायिकोंफे नर सथा कलंकपूर्ण कृत्योंके कारण ही साधारण मति साधु घेतस्क व्यक्ति धर्ममात्रको प्रणाम कर सामान्य सदाचारको ही सुखोजीवनका आधारस्तंभ मान प्रवृत्ति करते हैं। कम लोगों को इस बात का यथार्थ अबवोत्र है
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१. "असतां दूयते चित्तं श्रुत्वा धर्मकयां नतीम् । ___मन्त्र विद्यामिवाकर्ण्य महाग्रहयिकारिणाम् ।।" १.८६ । २. ''पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र पत्तः 1।
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ।।"-भक्तामर. ३६ ।