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जैनशासन
क्या दशा होगी ? जैन साहित्यका जैसे-जैसे मुझे ज्ञान होता जाता हूँ, वैसे-वैसे ही मेरे चिलमें इसके प्रति प्रशंसाका भाव बढ़ता जाता है ।" जैन साहित्य के विषय में प्रो० हाकिन्स लिखते है- "जैन साहित्य, जो हमें प्राप्त हुआ है, काफी विशाल है । उनका उचित अंग प्रकाशित भी हो चुका है । इससे जैन और बौद्ध धर्मक सम्बन्ध बारेमें पुरातन विश्वासों संशोधनकी आवश्यकता उत्पन्न होती हैं वेम्स विसेट प्रिंट नामक अमेरिकन मिशनरी अपनी पुस्तक "India and its Faiths" (५० २५८) में लिखते हैं- " जैन धार्मिक ग्रन्थोंके निर्माणकर्ता विद्वान् बड़े व्यवस्थित विचारक रहे हैं । वे गणित में विशेष दक्ष रहे हैं। वे यह बात जानते है कि इस विश्व में कितने प्रकारके विभिन्न पदार्थ है। इनको इन्होंने गणना करके उसके नक्शे बनाये हैं। इससे वे प्रत्येक बातको यथास्थान बता सक्ते है ।" यहाँ लेखककी दृष्टिके समक्ष जैनियोंके मोम्मटमार कर्मकांड में वर्णित कर्म प्रकृतियों का सूक्ष्म वर्णन विद्या है, जिसे देखकर विस्मित हुए बिना नहीं रहता। विस्मयका कारण यह है कि उस वर्णनमें कहीं भी पूर्वापर विरोध या अभ्यवस्था नहीं आती।
डा० वासुदेवशरण अग्रवाल, अपने "जैन साहित्य में प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री" शीर्षक निबन्धमें लिखते हैं- "हर्षकी बात है कि बौद्ध साहित्य से सब बातों में बरावरोका टक्कर लेने वाला जैनों का भी एक विशाल साहित्य है । दुर्भाग्य से उनके प्रामाणिक और सुलभ प्रकाशनका कार्य बौद्ध साहित्यकी अपेक्षा कुछ पिछड़ा हुआ रह गया। इसी कारण महावीरकाल और उनके परवर्ती कालके इतिहास निर्माण और तिथि क्रम निर्णय में जैन साहित्यका अधिक उपयोग नहीं हो पाया। अब शनैः शनैः यह कमी दूर हो रही है ।" डा० अप्रषाल लिखते हैं- "जैन समाजकी एक दूसरी बहुमूल्य देन है वह मध्यकाल का जैनसाहित्य है जिसकी रचना संस्कृत और अपभ्रंश में लगभग एक सहस्र वर्षों तक (५०० ई०
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1. The Jain literature left to usis quite large and enough has been published already to make it necessary to revise the old belief in regard to the relation between Jainism and Buddhism. -- The Religions of India P. 286. २. “The writers of the fain sacred books are very systematic thinkers and particularly 'strong on arithmetic. They know just how many different kinds of different things there are in the universe and they have them all tabulated and numbered, so that they shall have a place for every thing and every thing in its place." p. 258.
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