Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 273
________________ पुण्यानुबन्धी वाङ्मय २६५ उपयोगी है' '१२ वीं सदी के मध्य तक केवल जैन साहित्य ही पाया जाता है, तथा उसके पश्चात् भी बहुत काल तक जैन साहित्य प्रमुख रहा है । उसमें अधिक प्राचीन रचनाएँ एवं अत्यन्त उच्च बहुसंख्यक ग्रन्थ भी सम्मिलित हैं ।" जैन साहित्य के महत्त्वको हृदयंगम करने वाले एक महान् साहित्यसेवीने हमसे एक बार कहा था, कि "जैन साहित्यके द्वारा जैनधर्म जीवित रहेगा ।" इस साहित्य के प्राणपूर्ण रहनेका अन्यतम कारण यह भी है कि जैनसाहित्यके निर्माण में तपोवनवासी, शान्त, निक्कुल, परम मात्त्विक प्रवृत्ति तथा आहारवाले, उदासचरित्र तथा महान् जानी मुनीन्द्रोंका पुण्य जीवन प्रधान कारण रहा है। सास्विक जीवनशाली तथा प्रतिभावान् व्यक्तियोंकी रचनाका रस, गंभीरता और माधुर्य इतरी कृतियों कैसे आ सकता हूँ ? भगवान् महावीर प्रभुको दिव्य तथा सर्वांगीण सत्यको प्रकाशमें लाने वाली दिध्वनिको अर्थतः ग्रहणकर श्रमणोत्तम गौतम गणधरने आचारांग आदि द्वादश अंगोंकी रचना को उनका स्वरूप और विस्तार आदि परिज्ञानार्थं गोम्मटसार अवकाण्डकी ३४४ से ३६७ गाया पर्यन्त विवेचनका परिशीलन करना चाहिये | उससे प्रमाणित होता है कि जिनेन्द्रकी वाणी में महापुरुषोंका पुण्य चरित्र, सदाचरण का मार्ग, दार्शनिक चिन्तना तथा इस जगत्के आकार-प्रकार आदिका अनुयोग चतुष्टयके नामसे अत्यन्त विशद वर्णन किया गया है । यहाँ यह शंका सहज उत्पन्न होती है, कि साधक के लिए उपयोगी आत्मनिर्मलताप्रद आध्यात्मिक साहित्यका हो निर्माण आवश्यक था। अन्य विषयोंका विवेश्वन जैन महर्षियोंने किस लिए किया ? इसका समाधान यह है कि मनुष्यका मन चंचल बन्दर के समान है, जिसे कर्मरूपी बिच्छूने डंस लिया है और जिसने मोहरूपी सोब मदिराका पान किया है। वह अधिक समय तक आध्यात्मिक जगत् में विचरण करनेमें असमर्थ है; अतः वह अमागं में स्वच्छंद विहार कर अनर्थ उत्पन्न न करें, इस पवित्र उद्देश्यसे अन्य भी विषयोंका प्रतिपादन किया गया, जिनमें जिस लगा रहे और साधक राग, द्वेषसे अपनी मनोवृत्तिको बचाये । जैनशासन के ग्रंथोंका अन्तिम लक्ष्य अथवा व्येय आत्मनिर्मलता तथा विषय १. Until the middle of the 12th Cen. it is exclusively Jain and Jain literature continues to be prominent for long after. It includes all the more ancient and many of the most eninent of Kanarese writings." Vide Prof. M. S. Ramawsami Ayanger's article "The Jains in the Tamil Countries"-Jain Gazette P. 166 Vol. (XV).

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