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जैनशासन "धर्मानुबन्धिनी या स्यात् कविता संघ शस्यते। शेषा पापानवायैव सुप्रयुक्तापि जायते ॥"
-महापुराण १-६३ । धर्मसे सम्बन्धित कविता ही प्रशंसनीय है। अन्य सुचित कृतियां भी धनिबंधिनी न होने के कारण पापकर्मोक आगमनको कारण है।
ऐसे रचनाकारोंको मिनसेन स्वामी कुकवि मानते हैं । जिन साक्षरोंकी समझ में यह बात नहीं आती, कि रागादि रससे परिपूर्ण आनन्द रसको प्रवाहित करने वाली रचनाओं में क्या दोष है, उनको लक्ष्यबिन्दुमें रखते हुए आदर्शवादी कवि मूषरवासजी लिखते है
"राग उदै जग अन्ध भयो सहर्ज सब लोगन लाज गवाई। सीख बिना नर सीख रहे विषयादिक सेवनकी सूघराई ।। ता पर और रचे रस-काव्य कहा कहिए तिनको निठुराई । अन्ध असूझनकी अंखियान मैं, झोंकत हैं रज राम दुहाई ।।" कविवर विधाताको भूलको बताते हुए कहते हैं"ए विधि ! भूल भई तुम तें, समुझे न कहाँ कसतूरि बनाई। दीन कुरंगनके तन में, तन दन्त धरै, कहना नहि आई ।। क्यों न करी तिन जीभन जे रस काप करें पर कों दुखदाई । साधु अनुग्रह दुर्जन दण्ड, दोऊ सधते विसरी चतुराई ।।"
माधुनिक कोई कोई विद्वान् उस रचनाको पसन्द नहीं करते, जिसमें कुछ तत्त्वोपदेश या सदाचार-शिक्षणकी ध्वनि (didactic tone) पाई जाती है । वे उस विचारधारासे प्रभावित है जो कहती है कि विशुद्ध, सरस और सरल रचनामें स्वाभाविकताका समावेश रहना चाहिये । रचनाकारका कर्तव्य है कि चित्रित किए जाने वाले पदार्थोफे विषवमें दर्पणको वृत्ति अंगीकार करे ।
जहां तक जनानुरंजनका प्रश्न है, यहां तक तो यह प्राकृतिक चित्रण अधिक रस-संबर्धक होगा, किन्तु मनुष्य जीवन ऐसा मामूली पदार्थ नहीं है, जिसका लक्ष्य मधुकरके समान भिन्न भिन्न सुरभिसम्पन्न पुष्पोंका रसपान करते हुए जीवन व्यतीत करता है। मनुष्य-भीवन एक महान निधि है, ऐसा अनुपम अवसर है, जबकि साधक आत्मशक्तिको विकसित करते हुए जन्म-जरा-मरणविहीन अमर जीवनकै उस्कृष्ट और उज्ज्वल आनन्दकी उपलब्धिके लिये प्रयत्न करे । भतएब सन्तोंने जीवन के प्रत्येक अंग तथा कार्यको तबही सार्थक तपा उपयोगी माना है, जबकि यह आत्मविकासकी मधुर ध्वनिसे सपस्थित हो । भोगी व्यक्तियोंको धर्मकथा अच्छी नहीं लगती। महापुराणकार जिनसेन तो कहते है कि 'पवित्र