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जैनशासन
क्रूरता, पारस्परिक कलह, भोगलोलुपता तथा स्वार्थपरताकी जघन्य पत्तियोंका स्वागत किया और साम्प्रदायिकताको विकृत दृष्टि से वैज्ञानिक धर्मप्रसारके मार्ग में
परिमित मधाएं सालों लावामिका अत्याचार कि तब से स्वाधीनताके देवता फूष कर मार और दैन्य, दुर्बलता तथा दासताका दानव अपना तांडव नृत्य दिखाने लगा । एक विद्वान्ने जन अहिंसाके प्रभावका क्ष्णन करते हुए कहा था"यदि भल्प संख्यक जैनियोंकी अहिंसा लगभग ४० कोटि मानव समुदायकी हिंसनवृत्तिको अभिभुसकर उसपर अपना प्रभाव दिखा सकती है, तब सो अहसाकी गजवकी ताकत हुई।" ऐसी अहिंसाके प्रभावके आगे दासता और दंभरूप हिंसमवृमि पर प्रतिष्ठित साम्राज्यवादका झोपड़ा क्षणभरमें नष्ट-भ्रष्ट हुए बिना नहीं रहेगा।
वास्तवमें देखा जाए तो भारतवर्ष के विकास और अभ्युत्थानका जनशिक्षण और प्रभावके साथ घनिष्ठ संबंध रहा है । निष्पक्ष समीक्षकको यह बात सहजमें विदित हो जायगी । कारण जब जनधर्म चंद्रगुप्त आदि नरेशोंके साम्राज्य में राष्ट्रधर्म बन करोड़ों प्रजाजनोंका भाग्यनिर्माता था, तब अहां यथार्थ में दधकी नदियां बहती थीं। दुराचरणका बहुत कम दर्शन होता पा। लोगों को अपने धनों में ताले तक नही लगाने पड़ते थे। स्वयं की भल और दूसरों के अत्याचारोंके कारण जबसे जनशासनके ह्रासका आरंभ हुआ तबसे उसी अनुशतसे देशको स्थितिमें अन्सर पड़ता गया ।
प्रो. आपंगर सदृश उदारचरित्र विद्वानोंके निष्पक्ष अध्ययनमे निष्पन्न सामग्रोसे जात होता है, कि जनधर्म, जनमंदिर, जनशास्त्रों तथा जैनधर्माराधकोंका अत्यन्त क्रूरतापूर्ण रीतिसे शैव आदि द्वारा विनाश किया गया । वे लिखते है, कि 'पेरियपरमम्' में वर्णित शेष विद्वान् शिवप्तान संवधरके चरिबसे ज्ञात होता है कि पांड्य नरेशने जनधर्मका परित्यागकर शवधर्म स्वीकार किया और जैनोंपर ऐसा अत्याचार किया, कि 'जिसकी तुलना मोरय दक्षिण भारतके धार्मिक आंदोलनोंके इतिहास में सामग्री नहीं मिलेगी। सम्बन्धर रचित प्रति दस परमें एक ऐसा मार्मिक पद्य है जो जैनियों के प्रति भयंकर विद्वेषको व्यक्त करता है। इस पांड्य नरेशका समय ६५० ईस्वी अनुमान किया जाता है । ऐले ही अत्या
1. The Jains were also persecuted with such rigour and cruelty
that is almost unparalled in the history of religious movement in South India. The soul-stirring hymns of Sambandhar, every tenth verse of which was devoted to anathematise tlic Jains clearly indicate the bitter pature of the struggle.
-J.G. P. 154.