________________
पराक्रम के प्रांगण
भारतवर्षने अपनी असहाय अवस्थामें स्वाधीनताके लिये जो अहिसात्मक राष्ट्रीय संग्राम छेरा था, उसमें भी जैनियोंन तन, मन, धन, द्वारा राष्ट्रको असाधारण सेवा की है । यदि राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राममे आहुति देने वालोंका धर्म और जातिके अनुसार लेखा लगाया जाय तो जैनियोंका विशेष उल्लेखनीय स्थान पाया जायगा । प्रायः स्वतंत्र व्यसायशील होने के कारण जैनियोंने कांग्रेसके नेताओंकी गदीपर बैठनेका प्रयत्न नहीं किया और दे सैनिक ही बने रहे, इस कारण सेनानायकोंकी मुची में समुचित संख्या नहीं दिखाई पड़तो। सुभाष बाबूने जो आजाद हिन्द फौजका संगठन किया था, उस में भी अनेक जैनों ने भाग लेकर यह स्पष्ट कर दिया कि जैनियों की शिक्षा संग्राम-स्थलमें सत्य और न्यायपूर्ण स्वत्वोंके संरक्षणनिमित्त साधारण गृहस्यको सकारत्र संग्राम से पोछे कदम हटाने को नहीं प्रेरित करती। आजादी के मैदानमें धीरोंको आगे बढ़े चलों का ही उपदेश दिया गया है । जैनधर्मकी शिक्षा वीरताको सजग करने की उपयुक्त मनोभूमिका सैयार करती है । आत्मा किस प्रकार संसारके जाल से छूटकर शाश्वतिक आमन्दप्रय मुक्तिको प्राप्त करें इस ध्येयकी प्रतिनिमित्त जन साधक कष्टोंसे न घबड़ाकर विपत्तिको सहर्ष आमंत्रित कर स्वागत के लिए तत्पर रहता है । सत्यार्प सूत्रकारने कहा है-"धर्ममार्ग से विचलित न हो जावें तथा कर्मोकी निर्जरा करने के लिये कष्टोंको आमंत्रण देकर सहन करना चाहिये ।' भौतिक सुखोंका परित्यागकर आत्मीक आनन्दके अधीश्वर जिनेन्द्रोंकी आराधनाके कारण सांसारिक भोगलालसासे विमुख होते कर्तव्यनिष्ठ व्यक्तिको विलम्ब नहीं लगता, अतः सत्यपथपर प्रवृत्ति निमित्त प्राणोत्सर्ग करना उनके लिये कोई बड़ी बात नहीं रहती। सिसरोने कहा है
No man car. bc brave, wild thiuks palu the greatest evil, not temperate, who considers plcasusc thc highest good." -- "जो व्यक्ति कष्टको सबसे बुरी चीज मानता है वह वीर नहीं हो सकता तथा जो सुखको मर्वश्रेष्ठ मानता है, यह संयमी नहीं बन सकता।" इस प्रकारसे यह स्पष्ट होगा, कि जनधर्मको शिक्षा वीरता के लिये कितनी अनुकूल तथा प्रेरक है । ओ जरा भी सुखोंका परित्याग नहीं कर सकता, वह जीवन उत्सर्गकी अग्निपरीक्षा में कैसे उत्तीर्ण हो सकता है ? जेम्स फडने आजके भोगाकांक्षी तरुणोंकी इन शब्दों में आलोचना की है, 'Young man dream of martyrdom and Are unable to sacrifice a single pleasure.'
इस विवंचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्मका शिक्षण पराक्रम और पौर्यसे विमुख नहीं कराता है । भारतवर्ष में जबतक जैन शिक्षाका तथा जनदृष्टिका प्रचार था, तब तक देश स्वतंत्रताके शिखर पर रामासीन था। जबसे भारतवर्ष ने