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पराक्रमके प्रांगण में
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लिखा। इनके समान जिन भक्त सेनापति हल्ल और अमात्य गंगका नाम आता हूं। हलने श्रवणबेलगोला में चतुर्विगति जिनालय बनवाया था । दक्षिण भारतकी जैन वीरांगनाओं में जक्कैयावी, अक्कलदेवी, सवियच्ची, भैरवीदेवी विशेष विख्यात हूँ। महारनी भैरवी देवीने युद्धभूमि में अपने प्रतिपक्षी के दांत खट्टे किये थे । इस प्रकार दक्षिण भारतका इतिहास और वहांके महत्वपूर्ण अगणित शिलालेख जैनवीर पुरुषोंके पराक्रम तथा शौर्यको स्पष्टतया प्रतिपादित करते हैं ।
श्रीविश्वेश्वरनाथ रेऊ कृत 'भारत के प्राचीन राजवंश' (पृष्ठ २२७-२८ } और रायबहादुर ओझा जी के 'राजपूतानाका इतिहास' ( पृष्ठ ३६३) से विषित होता है कि वीरभूमि राजपूताना में शासन करनेवाले चौहान, सोलंकी, गहलौत आदि जैनधर्मावलंबी वीर पुरुष थे। अजमेर के नरेश पृथ्वीराज प्रथमने जैनमुनि अभयदेबके प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित की थी। उसने रणथंभोर के जैनमंदिरको सुवर्ण जटित दहलान बनवाई थी। पृथ्वीराज द्वितीय जैन के संरक्षक थे। उनके घाचा महाराज सोमेश्वर जनधर्म के प्रेमी थे। सोलंकी नरेश अश्वराज तथा उनके पुत्र अल्ण देव निभक्त थे। परिहारवंशी काक्कुक नरेश कीर्तिशाली तथा जैनधर्मावलंबी थे । महाराज भोजके सेनापति कुलचंद्र जैन थे। सोलंकी नरेश मूलराजने अहिलवाड़ा में मनोज्ञ जिनमंदिर बनवाया था । प्रतापी नरेशराज जयसिंह के मंत्री मुजल और शांतु जैन थे। महाराज कुमारपाल अनेक युद्धविजेता तथा जिनधर्म भक्त थे। उन्होंने अशोककी भांति धर्मप्रचारमें अपनी शक्ति लगाई थी; अनेक जैन मंदिरोंका निर्माण तथा हजारों प्राचीन शास्त्रोंका संग्रह कराया था। राठौरनरेश सिद्धराज जैन थे। मम्मट तथा धवल महाराज भी न ये मारवाड़क नरेश विजयसिंह सेनापति डूमराज जैनने अठारहवीं सदी के महाराष्ट्रों के साथ के युद्धमें प्रशंसनीय पराक्रमका परिचय दिया था। बीकानेर के दीवान एवं सेनानायक अमरचंद जी जेनने भटनेरया जवतालाको
2. If it be asked who in the beginning were firm promoters of Jain doctrine (they were) Raya (Chamundaraya), the minister of Rachmalla, after him Ganga, the minister of king Vishnu, after him IIulla, the minister of king Narsimhadeva, if any others could claim as such, would they not be mentioned ?
-Epi. Garn, Ins, at Sravanl elgola p. 85.
2. Minister general Ilulla's contribution for the cause of Jain Dharma was the construction of famous Chaturvimasti Jainalaya at Sravanbelgola, Ibid. p. 142,