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जैनशासन .
कहलाते थे। उनकी प्रजातंत्र रूप शासनपद्धत्ति थी। उनके देवस्थान एपक थे । जनकी पूजा भवैदिक थी। उनके धर्मगु पृथक थे । ये जैनधर्मका संरक्षण करते थे!" प्रोफेसर बनवतीने अथर्ववेदमें अनेक बार उल्लिखित वात्यका अर्थ यश कतिमा विपरीत पालवाना किया है।
प्राचीन प्रतिवाले, वेद आदिका परिशीलन कर महान् विद्वान् पं० टोडरमलजी ने अपने 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' सत्यमें अनेक अवतरण देकर बताया है कि वेदोंमें चौबीस तीर्थकरोंको वन्दना की गई है। उसमें नेमिनाघ, सुपार्श्वनाथ नामक २२ तथा सातवें तीर्थकरका उल्लेख किया गया है, किन्तु वर्तमान वेदके संस्करणों में अनेक मंत्रोंका दर्शन नहीं होता। इसका कारण भी बैरिस्टर अम्पतरायसीके काग्दोंमें यह है कि सांप्रदायिक विद्वेषवश प्रन्थ में काट छांट अवश्य हुई है । 'श्री हरिसस्य भट्टाचार्य एम० ए० सदृश उदार विद्वान् 'भगवान अरिष्टनमि' नामक अंग्रेजी पुस्तक (पृ. ८८, ८९) में नेमिनाथ भगवानको ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार करते हैं। यदि महाभारतके प्रमुख पुरुष श्रीकृष्ण इतिहासको भाषामें अस्तित्त्व रखते हैं, तो उनके चचेरे भाई परम दयालु भगवान् नेमिनायको कौन सहृदय ऐतिहासिक विभूति न मानेगा, जिनके निर्वाण स्थल रूपमें उर्जयन्त गिरि पूजा जाता है ?
जनेसर साहित्य, जैन वाङमय सथा शिलालेख आदिके प्रकाशमें जनधर्म भारतका सबसे प्राचीन धर्म प्रमाणित होता है । जनशास्त्रोंका वर्णन और उसकी यथार्थताका परिज्ञान करनेवाली मयुराको अनस्तुप आदि सामग्रीको दृष्टिमें रखते हुए बी विसेन्ट स्मिप लिखते हैं-"इन खोजोंसे लिखित जैन परंपराका
1. Eng. Jain Gazette part G, vol XXXI. 2. "It is interesting to note that Jain writers have quoted many
other passages froin the Vedas themselves, which are no longer to be found in the current editions. Weeding has very likely been carried out on a large scale. This may be accounted for by the bitter hostility of the Hindus towards Jainism
in recent historical times."......Rishabhadeva P.68. 3. The discoveries have to very large extent supplied corrobo
ration to the written jain tradition and they offer tangible and incontrovertible proof of the antiquity of the Jain religion and of its early existence very much in its present form. The series of twenty four pontifts (Tirthamkaras) each in his distinctive emblem was evidently firmly believed in at the beginning of the Christian era."