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जैनशासन
वैदिक विद्वान् प्रो० विरूपाक्ष एम० ए० वेदतीर्थ ऋग्वेदमें भगवान् वृषभदेव सद्भाव ज्ञापक मंत्रको बताते हुए लिखते हैं
ऋषभं मासमानानां सपत्नानां विषासहि ।
हन्तारं दाश्रूणां कृधि विराजं गोपितं गवाम् ॥-१०१-२१-६६॥ हे तुल्यदेव, क्या तुम हम उच्च वंशवालों में ऋषभदेव समान श्रेष्ठ आमाको उत्पन्न नहीं करोगे । उनको अर्जुन उपाधि आदि धर्मोपदेष्टापनको द्योतित करती है। उसे दात्रुओं का विनाशक बनाओ ।
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१।
विष्टपात् विद्वान् श्री बिनोवा भावे लिखते हैं, "जैन विचार निःसंशय प्राचीन काल से है, क्योंकि, "अन् इदं दयसे विश्वमस्त्रम् इत्यादि वेद वचनों में वह पाया जाता है ।" इस पंक्तिका अर्थ वेदवे व्याख्याकार सायणके शब्दों में वह है-"हे अर्हन्, तुम हम विशाल विस्की रक्षा करते हो ।" इस वाक्यका भाव भी जैनियोंत्रे मूलभूत जीवदया या अहिंता सिद्धान्त के अनुकूल है ।
जैनशासन के आराधकों इष्ट देव 'अर्हन्त' हैं, यह बात सर्वत्र उ है । यही कथन हनुमन्नाटक के इस प्रसिद्ध पद्मसे स्पष्ट होता है
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"यं शेवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटवः कर्त्तेति नैयायिकाः 1 अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकरः सोऽयं वो विदधातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभुः ॥ ३
show that so far back as the first century B. C., there were people, who were worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhaman or Parsvanatha. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras - Rishabha, Ajitanath and Arishtanemi. The Bhagawatpurana endorses the view that Rishabhadeva was the founder of Jainism."-Indian Philosophy p. 287, Vol. I,
1. "Rishabhadeva,"
२. पूर्ण वेद मंत्र इस प्रकार है :
अर्हन् बिभषि सावकानि अन्य अन् निष्कं यजतं विश्वरूपम् || अर्हन् इदं से विम्वम् । न व ओजीयो रुद्रत्वदस्ति ॥१२. ३३, १० । Vide-A vedic Reader' by Macdonell Pp. 63.
३. दौबलोग जिसकी 'शिव' कहकर उपासना करते हैं, वेदान्ती लोग 'ब्रह्म',
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बौद्ध लोग 'बुद्धदेव' प्रमाणप्रवीण नैयायिक लोग 'कर्ता', जैनधम निलम्बी 'अर्हन्त' और मीमांसक लोग 'कर्म' रूपमें जिसे पूजते हैं, वह त्रिलोकनाथ भगवान् आपकी मनोकामना पूर्ण करे ।