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इतिहासके प्रकाशमें
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इस प्रकार महत्त्वपूर्ण सामग्रीके प्रकाश में मेजर जनरल फरलोग एम० ए० एफ० आर० एम० का यह कथन हृदयग्राही मालूम होता है.---'पश्चिमीय एवं उत्तरीय मध्यभारतका ऊपरी भाग ईसवी सन्म १५०० वर्षमे लेकर ८७० वर्ष पूर्व पर्यन्त, उन दूरानियोंके अधीन था, जिनको द्रविड़ कहते हैं । उनमें सर्प, वृक्ष तथा लिंगपूजाका प्रचार था :कमर पाराग अत्यन्त संगठित धर्म प्रचलित था, जिसका दर्शन, आचार एवं उपद तपश्चर्या मुव्यवस्थित पो, वह जैनधर्म था । उससे ही ब्राह्मण तथा बौद्धधर्म में मार.म्भिक तपश्चर्याक चिह्न प्रसद्ध हुए। आर्य लोगोंफे गंगा अथवा सरस्वती तक पहुँचने के बहुत पूर्व अर्थात् ईसवी सनसे आठ सौं, नौ सौ वर्ष पहले होने वाले तीर्थकर पारसनाथके पूर्व वाईरा तोयंकरोंने जैनियोंको उपदेश दिया था ।"१
मोहनजोदडोकी सीलको वैराग्ययुक्त कायोत्सन मुद्रा तथा वृधभका चिह्न भगवान् घृषभदेवके प्रभावको द्योतित करते हैं। जिनको यह स्वीकार करना आपत्तिप्रद मालूम पड़ता है, उनको कमसे कम यह स्वीकार करना होगा, कि सिन्धु नदीकी सभ्यताके समर जैनधर्म था, जिसका प्रभाव सीलकी मूर्ति द्वारा अभिव्यक्त होता है।
पूर्वोक्त अवतरण में श्रीरामप्रसाद चन्दा सीलोंको वृषभदेवका द्योतक बताते है। जो श्री चन्दा महाशयसे सहमत नहीं, उन्हें पह मानना न्याय्य होगा, कि उस पुरातन काल में एक ऐसी सभ्यता या संस्कृति थी, जिसे आज जैन कहते हैं । उसका प्रभाव सील द्वारा प्रकाशित होता है । अतः सील मा तो जैन तीर्थकर वृषभदेवको धौतित करती है, अथवा जैन प्रभावको सूचित
करती है। 1. "All upper, Western, North Central India was theri say 1500 to
800 B.C, and indeed from unknown tines-rules by Turanians, conveniently called Dravids and given to tree, serpent, phalik worship, but there also then existed throughout upper India an ancient ahd highly organised religion, philosophikal ethikal and severely ascetikal viz. Jainism, out of which clearly developed the carly ascetikal features of Brahmanism and Buddhism. Long before the Aryatis reached the Ganges or even Saraswati, Jains had been taught by some 22 prominent Budhas, saints or Tirthamkaras, prior to the historical 23rd Bodha Parsva of the 8th or 9th century B.C,"—Short Studies in the science of Comparative Religion by Major General J. G. R. Furlong F. KA.S, P. 243-44.