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जैनशासन
रिपोटके पृष्ठ ३९ में ईसवी सन १६२ को जैन तीर्थंकर वृषभनाधकी मूर्तिका उल्लेख है, जो एक कुटुम्छनीने विसअमानको यो तया जिसने अपने पति, अपने श्वसुर वा अपने गुरुका नाम उल्लेख किया है।
म्युजियममें खङ्गासन और पद्मामन में कुमान कालीन जैन तीर्घकरोंकी मूर्तियां है। तमाम गतियोंदे ब-. में हुमा कालोत - स्मार्ग बात सूचित की गई है कि खगासन जैन मूति अपनी नग्नताले कारण पहनानी जाती है, किंतु पद्मासन तीर्थंकरोंकी मूर्तियां वक्षस्थलके मध्यमे विद्यमान श्रीवत्स चिह्न के द्वारा पहचानी जाती है ।२।
'आभरणयुक्त वा सग्रन्थ खटगासन जैन मूर्तिका भी सद्भाव होता है यह बात पुरातत्त्वोंकी शोधसे प्रमाणित नहीं होतो । पद्मामन जैन मूति दिगम्बर है, अथवा नहीं है, इस विषयमें कभी सन्देह उत्पन्न हो भी जाता है, किन्तु प्राचीनतम खगासन जैन यतिका दिगम्बर मुद्रासे अस्ति पाया जाना, दिगम्बर संप्रदाय ही पुरातन जनधर्म है, इस दृष्टिको परमार्थ प्रमाणित करता है। एक बात
और भी विचारणीय है, कि पनासन जनमुलिको पहिचान पक्षःस्थल में विद्यमान श्रीवत्स चिह्नसे होती है, यदि पुरातन जैनमूर्ति अदिगम्बर सम्प्रापानुसार सालंकार होती, तो उसमें श्रीवत्स चिह्नका दर्शन ही सम्भव नहीं होता, तब उनकी पहिचान भी न हो पाती। अतः अदिगम्बर सम्प्रदायकी अर्वाचीनता अबाधित सिद्ध होती है। . जैनधर्म में स्तूपोंकी मान्यताके विषयमें जिन्हें सन्देह है, दे कृपया महापुराणके सर्ग २२, श्लोक २१४ को देखें, जिससे जिनेन्द्र भगवान् के समवशरणमें मानस्तंभ, चैत्यक्षादिके माथ स्तुपादिका भी सद्भाव मताया है, यथा
the Buddhists art as the inscription froun Kankali Tila testify to the existence of a Jaina Stupa there in the second
century B. C. 1. Along the opposite wall of the rectangle in front of Bay No.
2 ja installed the inzage of Jaina Tirthankara Rishabhanath, (B. 4) dedicated in the year 84 (A.D. 162) of Kushan king Vasudeva hy a kutumbai who inentions the name of her
husband, father-in-law and spiritual teacher. (P. 3). 2. In the rectangular corner of this court are arranged other
Jain Tirthankára images, both scated and standing of the Kushana period and standing Jaina image is obviously idertified by its nudity but the seated Tirthankara images by the Srivatsa Symbol in the centre of the chest.