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जैनशासन
है कि
शिलालेख में वह महाराज वेदमा देके विपति पुष्यमित्र के पाससे भगवान् वृषभदेवकी मूर्ति वापिस लाये | तीन सौ वर्ष पूर्व मगधाधिपति नन्दनरेश उस मृतिको अपने यहाँ कलिंगने ले गए थे । स्व० पुरातत्त्वज्ञ वरि० श्री काशीप्रसाद जायसवालने उस लेखका गम्भीर अध्ययन करके लिखा है कि 'अब तक उपलब्ध इस देशके लेखोंमें जैन इतिहासकी दृष्टिसे बहू अत्यन्त महत्वपूर्ण शिलालेख है । उससे पुरुष के लेखोंका रामर्थन होता है। वह राज्यवंशके क्रमको ईमासे ४५० वर्ष पूर्व तक बताता है। इसके सिवाय उससे यह सिद्ध होता हूँ कि भगवान् महावीर के १०० वर्षके अनन्तर ही उनके द्वारा प्रवर्तित जैनधर्म राज्यधर्म हो गया और उसने उड़ीसा में अपना स्थान बना लिया ।'
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इस मूर्तिके विषयमें विद्यावारिधि वैरिस्टर संपतरावजी लिखते हैं"This statue most probably dated back prior to Mahavira's time and possibly even to that of Parsvanatha. " - (Rishabhadeva p. 67 ) वह मूर्ति बहुत करके महावीरके पूर्व की होगी और पार्श्वनाथ से पूर्ववर्ती भी सम्भवतीय है ।"
आज लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व भी जैनधर्मके आय तीर्थकर भगवान् ऋषभदेवकी मूर्तिकी मान्यता इस जैन दृष्टिको प्रामाणिक सूचित करती हैं कि जैनधर्मका उद्भव इस युग में भगवान् महावीर अथवा पाश्वनाथसे न मानकर उनके पूर्ववर्ती भगवान् वृषभदेव मानना उचित है ।
जैन शास्त्रोंमें चौबीस तीर्थंकर श्रेष्ठ महापुरुष माने गये हैं। हिन्दू शास्त्रों में २४ अवतार स्वीकार किए गए हैं । बौद्धधर्ममे २४ बुद्ध माने गए हैं। जोस्ट्रोघन (Zorastrians) मे २४ अर (Ahuras) पाने गये हैं । यहूदी धर्म में भी
१. "But from the point of view of the history of Jainism, it is the most important inscription yet discovered in the country. It confirms Pauranierecord and carries the dynastic chronology to c. 450 B. C. Further it proves that Jainism entered Orrisa and probably became the state religion within hundr year of its founder Mahavira,"
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२. " नमो अरह (न्) तानं नमो सर्वाविधानं । ऐरेन महाराजेन महामेघवाहन
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"कलिंगाधिपतिना सिरिखारवेलेन " वारसमे च ब से " (ग) च राजानं वह (म) तिमित पादे व (1) दाप (य) ति, नंदराजनितं कलिगजिन संनिवेस "अग - भगवन्त्रमुं नयति'
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- जे० सि० भास्कर भा० ५० १, पृ० २६, ३० ।
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