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साधकके पर्व
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अष्टालिका--आषाढ़, कार्तिक तथा फागुन मास के अन्तके आठ दिवस पर्यन्त यह पर्व प्रतिवर्ष तीन बार मनाया जाता है । इसे महापर्व कहा है
'सरव परब में बड़ो अठाई परब है।
नंदीसुर सुर जाहि, लिए वसु दरब है।" । नंदीश्वर महाद्वीपमें विद्यमान जिन मंदिरोंकी वंदना दिव्याल्माएं आठ दिवस पर्यन्त सड़े आनंद तथा उत्साहपूर्वक किया करती है । जैन पुराण ग्रंथों में इस पर्वका अनेक बार वर्णन आता है। जैन रामायण-पद्मपुराण में रविषेणाचाय लिखते है, कि आषाढ़ शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमापर्यन्त महाराज दशरथने बड़े वैभव साथ आठ दिवसपर्यन्त उपवास करके जिनेन्द भगवानका अभिषेक पूजादि द्वारा महान् पुण्यका संघय किया था ।
"ततः सर्वसमृद्धीनां कृतसम्भारसन्निधिः । चकार स्नपनं राजा जिनानां तूर्यनादितम् ।। अष्टाहोतं कृत्वा भिषः परमं नृपः । चकार महती पूजां पुष्पैः सहजकृमिमैः ।। यथा नन्दीश्वरे द्वीपे शक्रः सुरतसितः । जिनेन्द्रमहिमानन्दं कुरुतं तद्रदेश ६ ।। ७.९
-पद्मपुराण पर्व २९ । श्रीपाल चरित्रसे विदिप्त होता है, कि महाराज श्रीपालकी रानी मैनासुन्दरोने कार्तिक मासमें अष्टाह्निक महापूजा करकं कुष्ठरंगसे व्यथित महाराज श्रीपाल तथा उनके साथियों को अपनी सकाम साधनाकै प्रभावसे रोगमुक्त किया था।
तार्किक अकलंकदेवकी कथासे विदित होता है कि अष्टालिकाकी महापूजाके पश्चात जैन रथ निकालनेमें जिनरम श्रद्धालु राजमाताको राजाकी ओरसे आपत्ति दिली; कारण शासकपर बौद्धधर्म का प्रभाव जमा हुआ था। उस समय अकलंकदेवने अपने प्रतिभापूर्ण शास्त्रीय प्रतिपादन द्वारा जैनधर्मको प्रतिष्ठा स्थापित कर राजा तथा प्रजाको प्रभावित किया था ।
यह अष्टाह्निका पर्व पद्यपि जैन आगम तपा परंपराकी दृष्टि से सबसे बड़ा प्रसिद्ध है, किन्तु आज प्रचार में दशलक्षण पर्वको अधिक मान्यता है ।
बबालक्षण पर्व-भादों सुदी पंचमीसे चतुर्दशी तक माना जाता है ! अष्टालिकाके समान दशलक्षण तथा सोलहकारण पर्व वर्ष में तीन बार माननेका शास्त्रों में वर्णन है, किन्तु थियोन्मुखी समाज में भाद्रपद में ही पवं प्रचलित है। इस पर्वको पज्जूमण वा पयूषण पर्व भी कहते हैं । दस दिवस पर्यन्त उत्तम क्षमा, मार्दप (निरभिमानता), आर्जव (मायाहो नता), शौच (मिर्लोभबृत्ति), सत्य, संगम,