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साधकके पर्व
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यह क्षन अक्षय पद प्रदाता तमा अक्षयकीतिका निमित्त वना, इस कारण उस वैशाख मुदी तीजके साथ 'लक्षम' पद लग गया। महाराज श्रेयांसको अमरकीति प्राप्त हुई । चक्रवर्ती भरतेश्वर श्रेयास महाराजसे कहते हैं
"भगवानिव पूज्योऽसि कुरुराज स्वमद्य नः । त्वं दानतीथंकृत् श्रेयान् त्वं महापुण्यभागसि ।" -आदिपु० २८-२१७
हं कुरुराज, आज तुम भगवान् वृषभदेव के समान पूजनोय हो, कारण अमांस, तुम दान तीर्थके प्रवर्तक हो, अतः तुम महापुण्यशाली हो । आज उस घटनाको ध्यतीत हुए बहुत काल हो गया, किन्तु प्रतिवर्ष अक्षय तृतीयाका मंगलमय दिवस साधककी आत्माको पुनः पुनः दिव्य प्रकाश प्रदान करता हुआ सत्पात्र दानको ओर प्रेरित करता है।
दान के विषयमं यह बात स्मरण नारद यो है पत्तो हालात पर दानकी महत्ता अवलम्बित नहीं है । महाराज श्रेधासने धोड़ा सा इक्षरस भगवान् वपभदेवको आहार में दिया था, उस रसका आर्थिक दृष्टि से कोई भी मूल्य नहीं है, किन्तु उसका परिणाम इतना महत्वपूर्ण हुआ कि दानका दिवस संपूर्ण शुभकार्योंके लिए मंगलमय बन गया । चक्रवर्ती भरत तकने उस दानके दाताको दान तीर्थकर कहकर सम्मानित किया ।
भगवान् महावीरके चरित्रसे ज्ञात होता है कि घटक नरेशकी गुणवती पुत्री कुमारी चंदनाने बन्दीगृह में रहते हुए भी कोदों चावल के माहारदान द्वारा भगवान् महावीरको सम्मानित कर आश्चर्यप्रद कीति प्राप्त की।
पदमपराममें बताया है कि मर्यादापुरुषोत्तम महाराज रामचंद्रने दण्डक बनमें मिट्टी और पत्तों के बने हुए पात्र भोजन बनाकर मासोपवासी सुगुप्ति तथा सुगुप्त नामक दिगम्बर मुनियों को श्रद्धा तथा अत्यन्त हर्षयुक्त हो सोताजी एवं लक्ष्मणजीके साथ आहार अर्पण किया था। उस समय उन मोगीन्द्रोंको दिए गए आहारदानकी महिमा आचार्य रविषेगने पद्मपुराणमें बली सजीव भाषामें बताई है ।
इससे यह बात स्पष्टतया प्रमाणित होती है कि पात्रको विधिपूर्वक योग्य वस्तु उचित कालमें देनेसे महाफल की प्राप्ति होती है। सूत्रकार उमास्वामि महाराजने कहा है-"विधिव्यवासपात्रविघोषात् सहिशेषः ।" विधि, द्रव्य, दाता तथा पात्रको विशेषतासे दानमें विशेषता होती है। अक्षयतृतीयाके उज्वल संदेशको प्रत्येक गृहस्थको अपने अंतःकरणमें पहुँचाना चाहिए ।
१. पद्मपुराण पर्व ४१ ।