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साधकके पर्व
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वर्षभरा पिके प्रिमर
कर भाप पुण्य संपत्ति प्राप्त करनेका अनुपम सौभाग्य हस्तिनागपुरके नरेश श्रेयांस महाराजने प्राप्त किया है । इस कारण यह दिवस अत्यन्त पवित्र तपा मंगलमय माना जाता है।
भगवत् जिनसेनाचार्य ने अपने महापुराणमें अक्षय-तृतीयाफे विषयमें बताया है कि भगवान् वृषभदेवने छह मास पर्यन्त अनशनके उपरान्त आहारग्रहण करनेके लिये विहार प्रारंभ किया। वह कर्मभूमिरूप मुगका प्रारम्भिक समय था । लोगोंको इस बात का रोष न था, कि किस विधिपूर्वक दिगम्बर मुनिमुद्रापारी भगवान्को सन्मान पूर्वक आहार कराया जाय ! भगवान् मौनपूर्वक एक स्थानसे दूसरे स्थानको विहार करते थे तब भक्त लोग प्रेम पूर्वक आ आकर उन्हें प्रणाम करते थे। कोई पूछते -भगवन, कृपा कर हमें कार्य बताइये, कोई लोग चुपचाप भगवान्के पीछे-पीछे चले जाते थे। कोई अमूल्य रत्नोंको लाकर भेंट करते थे, कोई प्रस्तु, वाहन आदि लाते थे, किन्तु भगवान्के चित्तमें उनके प्रति इच्छा न होनेके कारण वे चुपचाप विहार करते जाते थे। भिन्न-भिन्न सामग्रीके द्वारा लोग अपने प्रभुका सम्मान करने का प्रयत्न करते थे, किन्तु भगवानको गडचर्याका भाव कोई भी नहीं जान सका था । इस प्रकार छह माहका समय और व्यतीत हो गया। उस समय कुरुजांगल देश के अधिपति श्रेयांस महाराजने रात्रिके अन्तिम प्रहरमें ७ स्वप्न देखें, जिनका पुरोहितने कल्याणप्रद फल बताया । मेरुदर्शनका फल बताया था कि मेरु समान उन्नत तथा मेरु पर्वतपर अभिषेकप्राप्त महापुरुष बापके राजप्रसादमें पधारेंगे ।
१. "पतो यतः पदं घत्ते मोनि चर्यास्म संश्रितः । ततस्ततो अनाः प्रीताः
प्रणमन्त्येत्य सम्भ्रमात् ।। प्रसीद देव कि कृत्यमिति केचिम्मगुर्गिरम् । तूष्णोंभावं बजन्तं च केचित्तम नुवाजु: 11 परे परामं रस्नानि समानीय पुरो न्यत्रुः । इत्यूकुश्च प्रसीदैमामिज्यां प्रतिगृहाण मः ।। वस्तुवानकोटींश्च विभोः केचिदडोकयन् । भगवांस्तास्वनथित्वात्तूष्णीको . विहार सः । केमिस्रग्वस्त्रमन्यादीनानयन्ति स्म सादरम् ! भगवन् परिवत्स्वेति पटल्यासह भूषणः ।। केचित् कन्या : समानीय रूपयौवनशालिनीः । परिणायितुं देवमुद्यता धिक विमूढताम् ।। फेचिन्मजनसामग्रघा संश्रित्योपारुधन विभुम् । परे भोजनसामग्री पुरस्कृत्योपतस्थिरे । विभो भोजनमानीतं प्रसीदोपविशासने । समे मजनसामग्या निर्षिश स्नान भोजने ।। एषाञ्जलिः फतोस्माभिः प्रसीदानुगहाण नः । इत्येके यौषिषन्मुग्घा विभुमशाततत्क्रमाः ।।"
-महापु० पर्व २० । १४-२२ ।