Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 212
________________ जैनशासन आज भी क्षपावलीका मंगलमय दिवस भगवान् महावीरके निर्माणकी स्मृतिको जागृत करता है । समग्र भारतमें दीपमालिकाकी मान्यता भगवान् महावीरके व्यक्तित्व के प्रति राष्ट्रके समादर के परंपरागत मावको स्पष्ट बताती हूँ । २०४ इतिहासका उज्ज्वल मालोक दीपावलीका सम्बन्ध भगवान् महावीरके निर्वाणसे स्पष्टतया बताता है। दीपावलीका मंगलमय पर्व आत्मोक स्वाधीनताका दिवस है । उस दिन संध्याके गमय भगवान् के प्रमुख शिष्य गौतम गणधर को कैवल्य लक्ष्मीकी प्राप्ति हुई थी। इससे दिव्यात्माओंके साथ मानवोंने केवलज्ञान -लक्ष्मी की पूजा की थी। इस तत्त्वको न जाननेवाले रुपया पैसाको पूजा करके अपने आपको कृतार्थ मानते हैं । वे यह नहीं सोचले कि द्रव्यकी अर्चना से क्या कुछ लाभ हो सकता है ? वे यह भूल जाते हैं कि P "उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपेति लक्ष्मीर्देवेन देयमिति कापुरुषा वदन्ति ।" दीपावली के उत्सव पर सभी लोग अपने-अपने घरोंको स्वच्छ करते हैं, और उन्हें नयनाभिराम बनाते हैं। यथार्थ मे बह पर्व आत्माको राग, द्वेष, दीनता, दुर्बलता, माया, लोभ, क्रोध आदि विकारोंसे बचा जीवनको उज्ज्वल प्रकाश तथा सद्गुण-सुरभि संपन्न बनाने में है । यदि यह दृष्टि जागृत हो जाय, तो यह मानव महावीर बनने के प्रकाशपूर्ण पथपर प्रगति किये बिना न रहे । दीपावली के दिनसे वीरनिर्वाण संवत् आरंभ होता है। अभी (सन् १९४० में) वीर निर्वाण संवत् २४७६ प्रचलित है। यह सर्व प्राचीन प्रचलित संवत्सर प्रतीत होता है | मंगलमय महावीर के निर्वाणको अमंगलनाशक मानकर भव्य लोग अपने व्यापार आदिका कार्य दीपावली से ही प्रारंभ करते हैं । अक्षयसूतीघा -- रक्षाबन्धन दीपमालिका के समान अक्षय तृतीयाका दिवस भी सारे देश में मंगल-दिवस माना जाता है। वैशाख सुदी तृतीयाके दिन भगवान् चतुर्थ कालेऽर्थ चतुर्थमास कैविहीनता fare | स कार्तिके स्वातिषु कृष्ण भूतप्रभात सन्ध्यासमये स्वभावतः ।। १६ ।। अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विषय घातीन्धनवद्विबन्धनः 1 विबन्धनस्थानमवाप्य शङ्करो निरन्तरायोरु सुखानुबन्धनम् ॥१७३॥ यत्प्रदीपालिका प्रबुद्धया सुरासुरैर्दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशले 11१९ ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकवात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्र निर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ॥ २१ ॥ । ” देखो - शक संवत् ७०५ रचित हरि०पु० सर्ग ६६ ।

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