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साधलके पर्व
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हस्तिनागपुरके श्रावकों ने उपमार्ग दूर होने पर अकंपन आदि मुनीन्द्रोंकी भक्तिभावपूर्वक पूजा की तथा योग्य आहार देकर पुण्य संचय किया । जैसे महामुनि दिन कुमारने साधुसंघपर वात्सत्य दिखाकर उनका उपसर्ग निवारण किया, उसी प्रकार जिनेन्द्र प्रतिमा, मन्दिर, मुनिराज आदिपर विपत्ति आनंपरप्राणोंकी भी बाजी लगाकर धर्म तथा धर्मात्माओंका रक्षण करना रक्षाबन्धन पर्वका संदेश है। उत्कृष्ट सात्त्विक प्रेमका प्रबोधक यह रक्षाबन्धन या श्रावणी पर्व है । उस दिन साधक उपसगं विजेता अपनाचार्य आदिकी पूजा करता हमा बहता है
"श्री अकंपन गुरु आदि दे मुनि सात सौ जानो।
तिनकी पूजा रचौ सुखकारी भव भवके अघ हानी ।।" रक्षाबन्धनके ममय बहिनके द्वारा भाईको राखी बांधनका संक्षिप्त रूपक यथार्थ में वात्सल्य रसका उदबोधक है। 'बहिन' दात्सल्य भावनाको प्रतीक है । 'भाई' आदर्श श्राक्कका रूपक है। धार्मिक श्रावक इसदिन वात्सल्य भावनाकी रक्षाका वन्धन स्वीकार करता है। बोतराग शासनके समाधक यदि इस पर्व के भावको हृदयंगम करें तो समाज तथा विश्वका कल्याण हो । सामाजिक जागृति वात्सल्य भावको धारण करने में है।
दोपावली-कार्तिक कृष्णा अमावस्याके सुप्रभातमें पावापुरीके उद्यानसे भगवान् महावीर प्रभु ईस्वी सन्से ५२७ वर्ष पूर्व संपूर्ण कर्म-शत्रुओं को जीतकर अनन्त ज्ञान, अनन्त आनंद, अनंत शक्ति आदि अनन्त गुणों को प्राप्तकर मुक्तिघामको पहुँचे थे । जस आध्यात्मिक स्वतन्यताको स्मृति में प्रदीपपंक्तियों के प्रकाश मारा जगत् भगवान महावीर प्रभु के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ अपनी
आत्माको निर्वाणोन्मुस्त्र बनानेका प्रपल करता है । हरिवंशपुरागसे विदित होता है, कि भगवान् महावीरने सर्वज्ञताको उपलब्यिके पश्चात भव्यबृन्दको तत्वोपदेश दे पायानगरी मनोहर नामक उद्यानयुक्त घनमें पधारकर स्वाति नक्षत्रके उदित होनेपर कार्तिक कृष्णाके सुप्रभातकी संध्याके समय अघातिया कर्मोका नादाकर निर्वाण प्राप्त किया। इस · सम्प दिव्यात्माओंने प्रभुकी और उनके देहकी गुजा की।
जम समय अत्यन्त दीप्तिमान जलती हुई प्रदीपपंक्तिके प्रकाशम आकाश सकको प्रकाशित करती हुई पावानगरी शोभित हुई । सम्राट श्रेणिक (विम्बसार) आदि नरेन्द्रोंने अपनी प्रजाके साथ महान् उत्सव मनाया था। तबसे प्रतिवर्ष लोग भगवान महावीर जिनेन्द्र के निर्वाणको अत्यन्त आदर तथा श्रद्धापूर्वक पूजा
१. "जिनेन्दधीरोऽपि विबोध्य सन्ततं समन्ततो भध्यम नहसन्ततिम ।
प्रपद्य पावानगरों गरीयसी मनोहरोचानवने लदीयके ।।१५।।