Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 184
________________ १७६ जैनशासन है | ज्ञान और वैराग्यसम्पन्न व्यक्ति संसारके भोगों में तम्मय और आसक्त नहीं बनता है । राग, द्वेष, मोह आदिकी भयंकर लहरोंसे व्याप्त इस संसारसिन्धु में सुज्ञ साधक निमग्न न हो तोरस्य बनाकर विपतियोंसे बचता है । कारण— "सीरस्थाः खलु जीवन्ति न तु रामान्धिगाहिनः । " बाह्य प्रवृत्तिमें कोई विशेष अन्तर न होते हुए भी वीतरागभाव विशिष्ट ज्ञानी और अज्ञानीमें मनोवृत्तिकृत महान् अन्तर है । इसलिये भोग, विषयादिके मध्य में रहते भी निर्मोही ज्ञानी कविके शब्दोंमें 'करत मन्थको छटाछटोसी ।' उदाहरण के लिये बिल्लोको देखिये। अपने मुहमें वह चूहेको दलाती है, उस मनोवृत्ति में और जब वह उसी मुंहमें बच्चेको दबाती है, कितना अन्तर है । बच्चेको पकड़ने में क्रूरता नहीं है, चूहेको पकड़ने में महान् करता है । इस प्रकार ज्ञानी और अज्ञानीकी भिन्न-भिन्न मनोवृत्ति के अनुसार कर्मपन्न अन्तर पड़ता है । मनोभावों को समझाने के लिए जैन सिद्धान्तमें एक सुन्दर रूपक बताया गया है। उसका वर्णन 'Statesman' कलकत्ता में भ्रमणबेलगोलाके जैनमटका उल्लेख करते हुए छपा था । उस वर्णनम जैनमठकी दीवालपर अंकित चित्रका इस प्रकार स्वष्टीकरण किया गया है "The most interesting of these depicts is six men standing by a mango tree. They have hearts of various hues, corresponding to their respect for life. The black-hearted man tries to fall the tree, the indigo, grey and red hearted are respectively content with big boughs, small branches and tiny springs, the pink-hearted man merely plucks a single mango, but the man with the white heart of perfe ction waits in patience for the fruit to drop." इन चित्रोंमें सबसे अधिक मनोरञ्जक वह चित्र है जिसमें एक आमके वृक्षके नीचे छह व्यक्ति खड़े हुए अंकित हूँ। उनके अन्तःकरण में जीवन के प्रति जिस प्रकारका भाव है तदनुसार उनके अन्तःकरण के विविध वर्ण बताये गये है । कृष्ण अन्तःकरणबाला वृक्षको जड़मूलसे उखाड़नेके काप और पीत मनोवृत्तिवाले क्रमशः बड़ी डाल, छोटी ढाल और लघु उपशाखा सन्तुष्ट है। पद्म मनोवृत्ति वाला केवल एक ही आम तोड़कर तृप्त है । प्रयत्न में लगा है। नोल,

Loading...

Page Navigation
1 ... 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339