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आत्मजागतिके साधन-सायस्थल १८७ मधवन में घोत्सव मनाया, रथयात्रा निकाली जिसमें पालगञ्जक राजा भी सम्मिलित हुए थे। माघ सुदी १५ को संघनं मधुवनसे प्रस्थान किया ।"१
उपर्युक्त दोनों यात्रा-संघ विवरणोरो तस भ्रमका निवारण हो जाता है जो प्रीवी कौन्सिलकी अपील नं० १२१ में लेफ्टिनेंट बोरल साहबने सन् १८४६ (सं० १९०३) निखर जी के पर्वतको जगली जानवरों, धनी झाड़ियों मदिसे ज्याप्त बताया था और लिखा था कि वहाँ मनुष्य नहीं रहत थे । बोरल महाशयका भाव बह रहा होगा कि पर्वतपर लोग नहीं रहा करते थे। तीर्थ यात्रियोंका आवागमन उनके वहुत पहिले से पूर्वोक्त विवरणसे स्पष्ट हो जाता है।
सम्मेदशिखर पर्वतपर यात्री लोग मुक्त होनेवाले आस्माओंके घरण चिह्न (Foot Print) की पूजा करते रहे हैं। श्वेताम्बर जैनोंकी ओरस कुछ टोंकोंके चरण चिल्ल बदल दिए गए थे, जिससे श्रीयो कोसिलमें दिगम्बर जैनियोंने यह आपत्ति उपस्थित की थी कि चरणोंकी पूजा हमारे यहाँ वर्जित है क्योंकि वे खंडित मूर्ति के अंग सिद्ध होते हैं। प्रोवी कौन्सिलके जजों का निम्न वर्णन पाठकों को विशेष प्रकाश प्रदान करेंगा--- __"श्वेताम्बरी लोगोंने जो चरणोंकी स्त्रय पूजा करना पसन्द करते हैं-दूसरे तरहके चिन्ह बना लिा है, जिन नमूना अथवा फोटो नहीं होनसे, ठोक तौरपर बताना बहुत सरल नहीं है, जो अंगूठेके नखौंको बताते हैं और जिन्हें पैरके एक भागका सूचक समझना चाहिए। दिगम्बरी लोग इसे पूजनेसे इनकार करते हैं, क्योंकि यह मनुष्य के शरीरके पथक अंगका सूचक है । दोनों मातहत अदालतोंने यह फैसला किया, कि श्वेताम्बरोंवा यह कार्य, जिसमें उन्होंने तीन मन्दिरोंमें उक्त प्रकारके चरण बनाए. एक ऐसी बात है कि जिसके बाबत शिकायत करनेका दिगम्बरियों को हव है।" ---(फैसले का हिन्दी अनुवाद, पृ० १७) ।
यह पर्वत तीर्थंकरोंकी निर्वाणभूमि होनसे विशेष पूज्य माना जाता है । इसके सिवाय अगणित साधकोंने वहाँ रह कर गग, द्वेष और मोहका नाश कर साम्यभाषको सहायता ले मुक्ति प्राप्त की, इस कारण जैन तीथों में इस पर्वतका सबमे अधिक आदर किया जाता है ।
धर्मज्योति गिरिराजके सकल शिखर सुखदाय ।
निसिदिन वंदों भावयुत कर्मकलंक नसाय ।। सम्मेदशिखर पूजाविधान में लिखा है--
"सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट सुथान ।
शिखरसम्मेद सदा नमहु, होय पापको हान ।। १. जैन सिद्धान्तभास्कर भाग ४, किरण ३, पृ० १४८ ।