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जैनशासन
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ठौर-ठौर पुत्री दई भई खबर जित तित्त । चीठी आई सेन को, आवहु जान निमित्त ॥ २२६ ॥ खरगसेन तब उठि चले, तुरंग असवार जाइ नंदजी को मिले, तजि कुटंब घरबार ॥ २२७ ॥"
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"संवत सोलह से इकसठे आए लोग संघ सौं नये ॥ केई उबरे केई मुए । केई महा जमतो हुए ||२३९५ खरगसेन पटर्ने म आइ । जहमति परे महा दुख पाइ ||
विद्या के
उपसभी
लोग ॥ २४०॥"
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"संघ फूट चहुँ दिसि गर्यो आप आपको होइ । नदी नाव संजोग ज्यौं, बिछुरि मिले नहि कोइ ॥ २४३ ॥
इस यात्रामें लगभग सात मासका समय व्यतीत हुआ था, ऐसा प्रतीत होता है। जब संघ ग्रीष्म में रवाना हुआ था, तब शिखरजोसे लोटते हुए बीमारीका खास कारण वर्षाजनित जलको खराबी हो रही होगी। इस यात्राम ७-८ माहका समय लगा ऐसी कल्पना हमने इसलिए की कि उस बीच बनारसीदासजी अपना हाल लिखते हैं, कि
"खरगसेन जात्राको गए। वनारसी निरंकुश भए || करें कलह माता सौं नित्त । पार्श्वनाथकी जात निमित्त || २२८॥ दही दूध घृत चावल चने । तेल तंबोल पहुप अनगिने || इतनी वस्तु तजी ततकाल । खन लीनो कीनी हठ-बाल ||२२|| चेत महीने खन लियो, बीते मास छ सात ।
आई पुग्यो कार्तिकी, चले लोग सब जात ॥ २३०॥ "
" सम्मेदसि चिरको यात्राका समाचार" नामक हस्त लिखित ११ पृष्ठ वाली पुस्तिका से विदित होता है कि, सवंत् १८६७ में कार्तिक वदी ५ बुधवारको कोई साहू पर्नासहजी के नेतृत्वमे मैनपुरीसे २५० बैलगाड़ियों और करीब एक हजार यात्री शिखरजीको वन्दनाको निकले थे। जिस दिन संघ निकला था उस दिन मैनपुरी रथयात्रा हुई थी। संघ में धर्म-साधन निमित्त आदिनाथ भगवान्की मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान को गई थी। रथयात्रामें वल्लमधारी सिपाही आदि भी थे । बनारस में भेलूपुरा मन्दिरके निकट संघ ठहरा था। पावापुरी पहुँचकर संघने जलमन्दिर के समीप आश्रय लिया था। राजगृही, गुणावा आदिकी वन्दना करते हुए वसंतपंचमीको संघने सम्मेदशिखरकी वन्दना को और पर्वतसे लौटकर