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जैनशासन "वीर-हिमाचल तें निकसी, गुरु गौतमके मुख कुण्ड ढरी है । मोह-महामद-भेद चली, जगको जड़सातप दूर करी है । ज्ञान-पयोनिधि मांहि रलो, बहु-भंगतरंगनिसों उछरी है । ता शुचि शारद गंगनदी प्रति में अंजुलीकर शीस धरी है ।। या जगमंदिरमें अनिवार अज्ञान अंधेर छयो अतिभारी । श्री जिनकी हानि दोप-हितामा जो नहिं होत प्रकासनहारी। तो किह भांति पदारथ पांति कहां लहते लहते अविचारी। या विधि सन्त कहें धनि पनि है जिन बेन बड़े उपगारी ।"
यह दिवस वीरभासनके प्रकाशके द्वारा मंगल रूप होनेके पूर्व भी अपना विशिष्ट स्थान धारण करता था। भोगभूमिको रचनाके अबसान होनेपर कर्मभूमिका आरम्भ इसी दिन हुआ था। पतिवृषभ आचार्य ने तिलोयपण्णत्तिमें इस समयको वर्षका आदि दिवस बताया है, कारण श्रावणमास वर्षका प्रथम मास कहा है । श्रमण संस्कृतिवालोंका वर्षारम्भ श्रवण नक्षत्रयुक्त श्रावण माससे होना उपयुक्त तथा संगत भी दिखता है । वर्षाकालसे धार्मिक जगत्का संवत्सर आरंभ होना ठीक मालूम पड़ता है। उस समय मेघमाला जलघारा द्वारा विश्वको परितृप्त करती है, तो धर्मामृत वर्षा द्वारा श्रमणगण अथवा उनके आराधक सत्पुरुष स्व तया परका कल्याण करते हुए आरमाको निर्मल बनाते हैं ।
रक्षाबन्धन यह पर्व सामियों के प्रति वात्सल्यभावका स्मारक है। जमशास्त्रकारोंने बताया है कि उज्जनमें श्रीवर्मा नामके राजा थे। उनके बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और ममूचि नामके चार मन्त्री थे। वहां अकंपन चार्यके नेतृत्वमें सातसो जैन साधुओं का विशाल संघ पधारा । मन्त्रिपोंके चित्त में जैनधर्मके प्रति प्रारम्भसे ही विषभाव था । उन्होंने श्रीधर्भ नरेन्द्रको मुनिसमूहकी बंदनाके लिए अनुत्साहित किया, किन्तु राजाको आंतरिक प्रेरणा देष मन्त्रियोंको भी मुनिवंदना को जाना पड़ा। उस समय संघस्थ सभी साधु आत्मध्यानमें निमग्न थे। राजा साधुओंकी दिगम्बर, शान्त, निस्पृह मुद्रा देखकर प्रभावित हुआ, किन्तु मन्त्रिमंहलने साधुओंके प्रति विद्वेषके भाव व्यक्त किये । इतने में मार्गमें श्रुतसागरजी झुस्तक दिखाई दिए, जिनको संघ पति अकम्पनाचार्यका आदेश नहीं मिला था कि
१. “वासस्स पढममासे सावणणामम्मि बहुलपडिवाए ।
आभोगक्षतम्भि य उप्पत्ती धम्मतित्यस्स । ६९ ॥ साषणवहले पारिवस्मुइस सुहोदये रविणो। अभिजिस्स पढमजोए जगुस्स आदि इमस्स पुढं |७०॥"