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जैनशासन
करते थे। उन्होंने चक्रवर्ती भरतको भी पराजित किया था । किन्तु भरतके जीवनमें राज्यके प्रति अधिक ममत्त्व देख और विषयभोगोंकी निस्सारताको सोच उन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण की।
विजेता बाहुबलि अपने अन्तःकरण में क्या मोचते थे, इसका सुन्दर चित्र अंकित करते हुए महाकवि मनसेन कहते हैं
हे आयुष्मन् भरत ! यह लक्ष्मी मेरे योग्य नहीं है, कारण इसका तुमने अत्यन्त समादर किया; यह तो तुम्हारी प्रिय पत्नीके तुल्य है। बंधनकी रामश्री सत्पुरुषोंको आनन्दप्रद नहीं होती।
यह तो मुझे विष कंटक समूह समन्वित प्रतीत होती है, अतः यह पूर्णतया त्याज्य है। में तो निष्कंटक तपःश्रीको अपने अधीन करनेकी आकांक्षा करता हूँ ।"
उनकी मूर्ति में भी उनका लोकोत्तर चरित्र और विश्वविजेतापन पूर्णतया अंकित प्रतीत होता है। बड़े बड़े राजा महाराजा तथा देश-विदेशकै प्रमुख पुरुष प्रभुकी प्रतिमाके पास आकर अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हैं । मूर्तिम की महान नृपाच किनकी गई है । वे एक पर्यन्त खड्गासन से तपश्चर्या करते रहे, इसलिए लता, सर्प आदिने उनके प्रति स्नेह दिखाया मूर्ति में भी भाषवी लता और सर्पका सद्भाव इस बातको ज्ञापित करते हुए प्रतीत होते हैं कि महा मानव बाहुबली विश्व बन्धु हो गए हैं। इसलिए हरएक प्राणी उनके प्रति आत्मीय भाव धारण कर अपना स्नेह व्यक्त करता है। मूर्तिके दर्शनसे आत्मामें यह बात अंकित हुए बिना नहीं रहती कि अभय और कल्याणका सच्चा और अद्वितीय मार्ग नम्पूर्ण परिग्रहका परित्याग कर बाहुबली स्वामीकी मुद्राको अपनाने में है । विपत्तिका मार्ग भोग, परिग्रह, हिंसा तथा विषयासक्ति हैं और कल्याणका प्रशस्त पथ अन्तः बाह्य-मपरिग्रह, अहिंसा और आत्मनिमग्नता की ओर अपने जीवनको प्रेरित करने में है । लेखनीको और वाणीकी भी सामर्थ्य नहीं है कि मूर्ति पूर्ण प्रभाव और सौन्दर्यका वर्णन कर सके । दर्शनजनित आनन्द वाणीके परे हैं । भारतरत्न राष्ट्रपति बाबू राजेन्द्रप्रसादजीनें उस दिन
१. "प्रेयसीयं तथैवास्तु राज्यश्रीर्या त्वयादृता । नोचिषा ममायुष्मन् बन्धो न हिसतां मुद्दे ॥ ९७॥ " "विध कण्टकालीन त्याज्येषा सर्वथापि नः । निष्कष्टकां पोलक्ष्मी स्वाधीनां कर्तुमिच्छताम् ||९९ ।। "
- महापुराण पर्व, ३६ ।