________________
१७८
इस कर्म-गालसे छूटने के लिये आत्म-दर्शनके माथ विषयोंके प्रति निम्पहता पूर्वक संयन ओवन व्यतीत करना आवश्यक है।
इस फर्म-मिशाम्त में यह बात स्पष्ट होती कि वास्तव इस प्रोवका (शुभ-अदाभ कर्म के सिवाय) कोई अन्य न तो हित करता है और न अहित । मिथ्यात्व कर्मके अधीन होकर भर्म-मार्गका न्याग करनेवाला देवता भी मरकर एकेन्द्रिय वृक्ष होता है । धर्माचरणाहित पक्रवर्ती भी सम्पनि न पाफर नरकमें गिरता है । इसलिये अपने उत्तरदायित्वको सोचतं हए कि इस जीवनको भाग्य स्व-उपार्जित कोंके अधीन है, धर्माचरण करना चाहिये। स्वामिमातिय मुनिराजने उपर्युक्त सत्यको इस प्रकार प्रकाणित किया है
"ण य को वि देदि लच्छी ण पो वि जीवस्स कुणइ उवयारं । उवयार अवयारं कर्म पि महासह कुणदि ॥३१९।। देवो वि धम्मघत्तो मिच्छत्तवसेण तरुवरो होदि । चक्की वि धम्मरहिओ णिवहइ गरए ण सम्पदे होदि ॥४३३।।
-स्वामिकातिफेयानप्रेक्षा ।
आत्मजागतिके साधन-तीर्थस्थल
सम्पूर्ण विश्वमे जो वातावरण है, वह प्रायः राग, द्वेष, मोहपूर्ण भावोंको प्रेरणा दिया करता है । पापि समर्प साधक विरोधी वातावरणमें विशेष आत्मबलके कारण, बास्मसाधनाफे क्षेत्र में अबाधित गतिसे पता चला जाता है । किन्तु मध्यम वृत्तिवाला मुमुक्षु योग्य प्रम्य, क्षेत्र, काल, मानरूप अनुकूल वातावरणके बिना अपने चित्तकी निर्भलता स्थिर रखनमें बड़ी कठिनताका अनुमव करता है । इसी दृष्टिसे पंडित माताबरणीने पार्मिक गृहस्पको अपनी साधनाफे अनुकूल गृह तथा जोवन-सहचरीका सम्बन्ध मिलानका मार्ग सुझाया है। वातावरणवा मनोपत्ति पर कम असर नहीं पड़ता। स्थल विशेष स्मृतिपटमके समक्ष मदियों पहले की घटनाओको उपस्थित कर देता है, जिससे जीवनमें कभीकभी ऐसी प्रेरणा मिलती है, जो बड़े-बड़े प्रन्यों, सन्तों, प्रवचनोंस भी नहीं मिलती। यदि कोई सहृदय बित्तोरगढ़ पहुंचे, तो राणा प्रतापका अप्रतिम