________________
१५२
जेनशासन
पक्ष भी परमार्थ रूप हो, अतः वह तब तक सत्पथपर जानेकी अन्तः प्रेरणा नहीं प्राप्त करेगा, जब तक उसकी एकान्त पद्धतिकी त्रुटियोंका उद्भावन नहीं किया जायगा ।' अहिंसाको महत्ता बताने के साथ हिसासे होनेवाली क्षतियोंका उल्लेख करनेसे अहिंसाको ओर प्रबल आकर्षण होता है । अतः परमकारुणिक जन महषियोंने अनेकान्तका स्वरूप समझाते हुए एकान्तके दोषोंवर प्रकाशन किया हैं। जीवका परमार्थ कल्याण लक्ष्यभूत रहने के कारण उनकी करुणा दृष्टिको कोई आँच नहीं आती है ताकिक अकलंगने कहा ही है कि "नराम्यगावनाका आश्रय ले अपने पैरोंपर कुठाराघात करनेवाले प्राणियोंपर करुणा दृष्टि दश मैंने एकान्त वादका निराकरण किया है, इसके मूलमें न अहंकार है और न द्वेष है ।" ___ अकलंक देव तो यहां तक वाहते हैं कि "यदि वस्तु स्वरूप स्वयं अनेक धर्ममय न होता, और वह एकान्तयादियोंको घारणाके अनुरूप होता तो हम भी उसी प्रकारका वर्णन करते। जब अनेकान्त रूपको स्वयं पदार्थोन धारण किया है, तब हम क्या करें ?-'यो स्वयम्भ्यो रोधते सब के वयम् ।' पदार्थका स्वरूप लोकमत मा लोकधारणाके आधार पर नहीं बदलता । वह पदार्थ अपने सत्य सनातन स्वरूपका त्रिकालमें भी परित्याग नहीं करता। अविनाशी सत्य स्वयं अपने रूपमें रहता है। हमारे अभिमतको अनुकूल प्रतिकूलताका उसके स्वरूपपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता 4 सारा जगत् अपने विचित्र संगठित मतोंके आधारपर भी पूर्वोदित सूर्यको पश्चिममें उदय प्राप्त नहीं बना सकता ।
इस स्यावाद शैलीका लौकिक लाम यह है कि जब हम अन्य व्यक्तिके दृष्टिबिन्दुको समझनेका प्रयत्न करेंगे तो परस्परफे मममूलक दृष्टिजनित
१. भगवत् जिनसेनने एकान्त मतोंकी आलोचनात्मक पद्धतिको धर्मकथा रूप कहा है। वे कहते हैं.....
"आक्षेपिणी कयां कुर्यात्प्राज्ञः स्थमत संग्रहे । विक्षेपिणी कथा तज्ज्ञः कुर्याद्दुतनिग्रहे ।।"
–महापुराण १३५-१।। 2. "We can not make tnie things false or false things tnie by
choosing to think them so. We cannot vote right into wrong Or wrong into right. The etemal truths and rights of things cxist fortunntely independent of our thoughts or wishes fixed as mathematics inherent in the nature of inan and the world."
-Selected Essays of Froude'—P. 69.