________________
१६०
जेनशासन
संसारी बात्मा ककि मधीन है, यह प्रत्यक्ष अनुभवमें आता है। फिर भी सकप्रेमियोंको विधानन्दि स्वामी आप्तपरीक्षामें इस प्रकार युक्ति द्वारा समनाते हैं—"संसारी जीय बंधा हुआ है क्योंकि यह परतंत्र है। जैसे सालान-स्तम्भमें प्राप्त हाथो परतंत्र होनेके कारण बंधा हुआ है। यह जीव परतंत्र है क्योंकि इसने होन स्थानको ग्रहण किया है। जैसे काम वेगसे पराधीन कोई थोत्रिय ब्राह्मण वेश्याके घरको स्वीकार करता है। निस हीन स्थानको इस जीवने ग्रहण किया है, यह शरीर है। उसे ग्रहण करनेवाला संसारी जीव प्रसिद्ध है। यह शरीर होन स्थान कैसे कहा गया ? शरीर हीन स्थान है, क्योंकि वह आत्माके लिए दुःखका कारण है। जैसे किसो व्यक्तिको जॅझ दुःखका कारण होनेसे यह जेलको होन स्थान समझता है।" विधानम्दि स्वामीका भाव यह है कि इस पीड़ाप्रद 'मलबीजं मलयोनिम्' शरीरको धारण करनेवाला जोब कर्मोके अधोन नहीं तो क्या है ? मौन समर्थ ज्ञानवान व्यक्ति इस सप्त धातुमय निन्द्य शरीरमें बन्दी बनना पसंद करता है। यह तो कर्मोंका आतंक है कि जीवकी यह अवस्था हो गई है, जिसे नौलतरामजी अपने पदमें इस मधुरताके साथ गाते है--
"अपनी सुध भूल आप, आप दुख उपायो । ज्यों शुक नभ चाल बिसरि, नलिनी लटकायो । चेतन अविरुद्ध शुद्ध दरश बोध भय विसुद्ध । तज, जड़ रस फरस रूप पुद्गल अपनायो ।। चाह-दाह दाहै, त्यागे न ताहि चाहै ।
समता-सुधा न गाहै, जिन निकट जो बतायो ।।" जब यह जीय कर्मोंके अधीन सिद्ध हो चुका तब उसकी पराधीनता या तो अनादि होगी जैसा कि ऊपर बताया गया है अथवा उसे सादि मानना होगा। मनादि पक्षको न माननेवाले देखें कि सादि मानना कितनी विकट समस्या उपस्थित कर देता है । कर्म-बंधनको सादि माननेका स्पष्ट भाव यह है कि पहिले बारमा कर्मबन्धनसे पूर्णतया शून्य था, उसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द, अनन्त शक्ति आदि गुण पूर्णतया विकसित थे। वह निजानन्द रसमें लीन था । ऐसा आत्मा किस प्रकार और क्यों कर्म-बन्धनको स्वीकार कर अपनी दुर्गतिके लिये स्वयं अपनी चिता रचनेका प्रयत्न करेगा ? आत्मा मोही, अज्ञानी, अविवेकी और असमर्थ होता तो बात दूसरी पी । यहाँ तो शुद्धात्माको अशुद्ध बनने के लिए कौनसी विकारो शक्ति प्रेरणा कर सकती है ? शुद्ध सुवर्ण पुनः किट्टकालिमाको
१. आप्तपरीक्षा, प. १।