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जैनशासन यदि ऐसा है तो कर्मोदय-मद्यके आवेशसे वशीकृत आत्माका अस्तित्व कैसे जात होगा? यह कोई दोष नहीं है । कारण, कर्मोदयादिके आदेश होने पर भी बात्माके निज लक्षणको उपलब्धि होती है । आचार्य नेमिनन सिद्धगत-चश्वर्तीका कथन है
"5च गंगा को फास किया तो णो संति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति बंधादो॥"
-द्रव्यसंग्रह जीवमें वर्ण ५, रस ५, गन्ध २ और स्पर्श ८-ये २० गुण तात्विक दृष्टिसे नहीं पाये जाते इसलिये उसे अमूर्तिक कहते हैं। व्यवहार नगसे (From practical stand-point) बन्धको अपेक्षा उसे मूर्तिक कहा है।
प्रवचनसारमें स्वामी कुम्बकुन्वने इस विषयमें एक बड़ी मार्मिक बात लिखी है
"स्वादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि। दब्वाणि गुणे य जघा तह बंघो तेण जाणीहि ॥"-२०२८ । जैसे स्पादिरहित आत्मा रूपी ब्रयों और उनके गुणोंको जानता है, देखता है अर्थात् रूपी तथा अरूपोका झाताशेष सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार रूपादिरहित जीव भी रूपी कर्म-पुद्गलोंसे बाँधा जाता है। यदि यह न माना जाए तो अमूर्त आत्मा द्वारा मूर्त पदार्थोका जानना, देखना भी नहीं बनेगा।
अब जीव और कर्मका सम्बन्ध प्रत्यक्ष अनुभवगोचर है और सादि सम्बन्ध आगम, तर्क तथा अनुभवसे बाधित है, तब अनादिसम्बनम स्वीकार करना न्यायसंगत होगा । वस्तुका स्वभाव तकके परे रहता है। जैसे, अग्निको उष्णता सकका विषय नहीं है। अग्नि क्यों उष्ण है, इस शंकाके उत्तरमें यही कहना होगा-'भावोऽतकंगोचरः' जो इसे न मानें उन्हें पञ्चाध्यायोकार स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा अनुभव करनेको सलाह देते हुए सुझाते हैं-"नो चेत् स्पर्शन स्पृश्यताम् ।
जीर और कर्मका सम्बम्घ अनादि है और यदि आत्माने कर्मका उच्छेद करने के लिये साधना-पथमें प्रवृत्ति न की तो किन्हीं-किन्हींका वह कर्म बन्धन सान्त न हो अनम्त रहेगा। अनन्त-अनादिके विषय में जिन्हें एक झलक लेनी हो ये महाकवि बनारसोबासजीके निम्नलिखित चित्रणको ध्यान से देखें और उसके प्रकाशमें अनादि सम्बन्धको भी कल्पना द्वारा जाननेका प्रयत्न करें
___ "अनन्तता कहा ताको विद्यार-- अनंतताको स्वरूप दृष्टान्त करि दिखाइयतु है, जैसें वट वृक्षको बीज एक हाथ विषे लीजे, ताको विचार दीर्घ दृष्टि सों की तो वा वढ