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जैनशासन
कर्मसिद्धान्त
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साधक के आत्मविकासमें जिस शक्तिके कारण बाधा उपस्थित होती है उसे जैन-शासनमें 'कर्म' कहते हैं । भारतीय दार्शनिकोंने 'कर्म' शब्दका विभिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। करण सिंए हो मानते है। यज्ञ आदि क्रियाकाण्डको मीमांसाशास्त्री कर्म जानते हैं । वैशेषिकदर्शनमें कर्मकी इस प्रकार परिभाषा की हैं – जो एक द्रव्यमें समवायसे रहता हो जिसमें कोई गुण न हो और जो संयोग तथा विभाग में कारणान्तरकी अपेक्षा न करे । 'सांख्य दर्शनमें 'संस्कार' अर्थम कर्मका प्रयोग हुआ है । गोतामें 'कियाशीलता' को कर्म मान अकर्मण्यताको होन बताया है। महाभारतमें" आत्माको बांधनेवाली शक्तिको कर्म मानते हुए शांति पर्व २४० -७ में लिखा है - प्राणी कर्मसे बँधता है और विद्यासे मुक्त होता है ।' बोद्ध साहित्य में प्राणियोंकी विविधताका कारण कर्मोकी विभिन्नता कहा है । अंगुत्तर निकाय सम्राद मिलिन्दके प्रश्नके उत्तर में भिक्षु नागसेन कहते हैं - 'राजन् कर्मकि नानात्यके कारण सभी मनुष्य समान नहीं होते । महाराज, भगवान्ने भी कहा है-'मानवों का सद्भाव कर्मो के अनुसार है। सभी प्राणी कर्मोंके उत्तराधिकारी है । कर्मके अनुसार योनियोंमें जाते है । अपना कर्म हो बन्धु है, माश्रय है और वह जीवका उच्च और नोचरूपमें विभाग करता है ।" अशोक के शिलालेखकी सूचना नं० ८ द्वारा कर्मका प्रभाव व्यक्त करते हुए सम्राट् कहते हैं - इस प्रकार देवताओंका प्यारा अपने कमोंस उत्पन्न हुए सुखको भोगता है ।' पातञ्जल योग
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१. "कर्तुरीप्सिततमं कर्म " - पाणिनीय सू० २. " एकद्रव्यगुणं संयोग विभागष्यनपेक्षकारर्णामति कर्मलक्षणम् ।” - वंशेषिकदर्शन सभाष्य १-१७, ५० ३५ १
३. सांख्यतत्त्वकौमुदी ६७ ।
४. "योगः कर्मसु कौशलम् " गोता । "कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।" गीता
५.
"कर्मणा बध्यते जन्तुः, विद्यया तु प्रमुच्यते ।”
६. " महाराज कम्मानं नानाकरणेन मनुस्सा न सके समका । भासितं ऐ तं
कम्मदायादा कम्मयोनी कम्पबंधु होनप्पणीततायाति ।"
- Pali Reader P. 39.
महाराज भगवता कम्मस्स कमाणब सप्ता, कम्मपटिसरणा कम्भं सत्तं विभजति यदिदं
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७. "बुद्ध और बौद्धधर्म, ० २५६ ।