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कर्मसिद्धान्त
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ही । जीव और पदगल अपने-अपने गुणों कुद पन होकर एक सीन अवस्थाका निर्माण करते हैं। राग, द्वेष मुक्त आल्मा पद्गलपुरजको अपनी ओर आकर्षित करता है । जैसे, चुम्बक लोहा आदि पदार्थोको आकर्षित करता है। जैसे फोटोग्राफर चित्र खींचते समय अपने कैमरेको व्यवस्थित ढंगसे रखता है और उस समय उस कमरेके समीप आने वाले पदार्थको आकृति लेन्सके माध्यमसे प्लेटपर अंकित हो जाती है, उसी प्रकार राग, द्वेष रूपी कांचके माध्यमसे पुद्गलपुञ्ज आत्मामें एक विशेष विकृति उत्पन्न कर देते हैं, जो पुनः आगामी रागादि भावोंको उत्पन्न करता है 'स्वगुणपतिः बन्यः'-अपने गुणोंमें परिवर्तन होनेको बन्ध कहा है । हल्दी और चूने के संयोनसे जो लालिमा उत्पन्न होती है वह पोत हल्दी और श्वत चूने के संयोगका कार्य हैं, उनमें यह पृथक्-पृथक् बात नहीं है । किसीने कहा है
"हरदीने जरदी तजी, चूना तज्यो सफेद ।
दोऊ मिल एकहि भये, रमी न काहू भेद ॥" अब आत्मा कर्मोका बन्य करता है, तब शब्दको दृष्टिसे ऐसा विदित होता है कि आरमाने कर्मोको ही बांधा है, कर्मोने आत्माको नहीं । किन्तु, वास्तवमें बात ऐसी नहीं है। जिस प्रकार आत्मा कोको बांधता है, उसी प्रकार कर्म भी जीव (आत्मा) को बांधत हैं। एक दुसरेको पराधी किया है। पंचाध्यायोमें कहा है
"जीवः कर्मनिबद्धो हि जीवबद्ध हि कर्म तत् ?' (१०४) इस कर्मबन्धके अन्तस्तलपर भगवषिजनसेनाचार्य बड़े मुन्दर शरुदोंमें प्रकाश डालते हैं
"संकल्पवशगो मूढः वस्त्विष्टानिष्टतां नयेत् । रागद्वेषौ ततः ताभ्यां बन्धं दुर्मोचमश्नुते ।।"-महापुराण २४॥२१ "यह अज्ञानी जीव इष्ट अनिष्ट संकल्प द्वारा वस्तुमें प्रिय-अप्रिय कल्पना करता है जिससे राग-द्वेष उत्पन्न होते हैं। इस राग-द्वेपसे दृढ़ वर्मका बन्धन होता है ।" आत्माके कम-जाल बुननेकी प्रक्रियापर प्रकाश डालते हुए महर्षि कम्दकाद पंचास्तिकाय में कहते हैं
"जो पुण संसारत्थो जोबो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कर्म कम्मादो होदि गदिसुगदी ।। गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो य दोसो वा ॥