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जैनशासन
उस क्रिया निमित्तसे परिणमन-विशेषको प्राप्त पुद्गल भी कर्म कहलाता है। जिन भावोंके द्वारा पुद्गल आकर्षित हो जीवके साथ सम्बन्धित होता है उसे भावकर्म कहते है । और आत्मामें विकृति उत्पन्न करने वाले पुद्गलपिडको व्य कर्म कहते है ।" स्वामी अकलंकदेवका कथन है'-"जिस प्रकार पाविशेषम रखे गये अनेक रमवाले बीज, पुरुष तथा फलोंका मद्यरूपम परिणमन होता है, उसी प्रकार आत्मामें स्थित पुद्गलोका क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कपायों तथा मन, पचन, कायके निमित्त से आत्मप्रदेशोंके परिस्पन्दनम्प योगके कारण कर्मरूप परिणमन होता है।
पंचाध्यायीमें यह बताया है कि-"आत्मामें एक वैभाविक शक्ति है जो पुद्गल-पुज्ञ के निमित्त को पा आत्मामें विकृति उत्पन्न करती है।"
"जोबक परिणामोंवा निमित्त पाकर पुद्गल स्वरमेव कर्मरूप परिणमन करते हैं ।तात्त्विक भापामें आत्मा पुद्गलका सम्बन्ध होत हार भो जड़ नहीं बनता और न पुदगल इस सप्नभदे कारण सनेटन या है।
प्रश्चनसार संस्कृत टीकामें तात्विक दृष्टिको लक्ष्य कर यह लिखा है । "द्रव्यकमंका कौन कर्ता है ? स्वयं पुद्गलका परिणमन-विशेष हो। इसलिए पुद्गल ही द्रव्यकोका कर्ता है, आत्मपरिणामरूप मायकर्मोका नहीं । अतः आत्मा अपने अपने स्वरूपसे परिणमन करता है । पुद्गल स्वरूपसे नहीं
करता।"
कोका आत्माके साथ सम्बन्ध होनेसे जो अवस्था उत्पन्न होती है, उसे बन्ध कहते है ! इस बन्ध पर्यायमें जीव और पुद्गलकी एक ऐसी नवीन अवस्था उत्पन्न हो जाती है जो न तो शुव-जीवमें पाई जाती है और न शुद्ध-पुद्गलमें
१. "यथा माजनविशेष प्रक्षिप्तानां विविधरसबोजपुष्पफलानां मदिरामावन
परिणामः, तथा पुद्गलानामपि आत्मनि स्थितनां योगकषायवशात् कर्मभावेन
परिणामो येदितव्यः ।"--त० स०, ५० २१४ । २. "जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्र प्रपद्य पुनरन्थे । स्वयमेव परिणमन्तेश्य पुद्गलाः कर्मभावेन ।"
-१० मिद्ध्यु पाय १२ । ३. 'अथ द्रव्यकर्मणः कः कर्तेति चेत् ? पुद्गलपरिणामो हि तावत् स्वयं पुद्गल
एव । ततस्तस्य परमार्थात् पुद्गलात्मा आत्मपरिणामात्मकस्य टूथ्यकर्मण एव कर्ता; न त्वात्मपरिणामात्मकस्य भावकर्मणः । तप्त आत्मा आत्मस्वपेण परिणमति, न पुदगलस्वरूपण परिषमति ।" १० १७२ ।