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समन्वयका मार्ग स्याद्वाद
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स्थादाद शासनमें ही सब बातोंकी सम्यक व्यवस्था बनती है।
समन्तभद्राचार्य इस दंत-अद्वैत एकान्तके विवादका निराकरण करते हुए कहते है -
"सत्सामान्यात्तु सर्वेक्यं पृथक् द्रव्यादिभेदतः ॥३४॥" सामान्य सत्त्वको अपेक्षा सब एक हैं, द्रव्य गुण पर्याय आदिकी दृष्टि से उनमें स्थापना है।
इस दृष्टि से एकत्वका समर्थन होता है। साथ ही अनेकत्व भी पारमार्थिक प्रमाणित होता है।
कोई-कोई जिज्ञासु पूछते है-आपके यहाँ एकान्त दृष्टियोंका समन्वय करने के सिवाय वस्तुका अन्य स्वरूप माना गया है या नहीं? ___ इसके समालानमें यह लिखना उचित जंचता है कि स्याद्वाद दृष्टि द्वारा वस्तुका यथार्थ स्वरूप प्रकाशित किया जाता है। अन्य स्वरूप बताना सत्यकी नींबपर अवस्थित दृष्टिके लिए अनुचित है । स्याद्वाद दृष्टिमें गिध्या एकान्तोंका समूह होनेपर भी सत्यसाका पूर्णतया संरक्षण होता है, कारण यहां वे दृष्टियाँ 'भो' के द्वारा सापेक्ष हो जाती है।
इस स्याद्वादके प्रकाशमें अन्य एकान्त धारणाओंके मध्य मैत्री उत्पन्न की जा सकती है। स्वामी समन्तभाकी आप्तमीमांसा समन्वयका मार्ग विस्तृत रीतिसे स्पष्ट किया गया है। स्याद्वादके वचमय प्रासादपर जद एकान्तवादियोंका शस्त्र प्रहार अकार्यकारी हमा, सब एक तार्किक जैनधर्मके करुणातस्वका आश्रय लेते हुए कहता है; दयाप्रधान तत्त्वज्ञानका आश्रय लेनवाला जनशासन जब अन्य संप्रदायवादियोंकी आलोचना करता है, तब उनके अंतःकरणमें असह्य व्यथा उत्पन्न होती है, अतः आपको क्षणिकादि तत्त्वोंकी एकान्त समाराघनाके दोषोंका उद्भावन नहीं करना चाहिये ।
यह विचारप्रणाली तत्वज्ञोंके द्वारा कदापि अभिनंदनीय नहीं हो सकती। सत्यकी उपलब्धिनिमित्त मिथ्या विचारशैलीको सम्यक् आलोचना यदि न को जाय तो भ्रान्त व्यक्ति अपने बसत्पथका क्यों परित्याग कर अनेकान्त-ज्योतिका आषय लेनेका उद्योग करेगा? अनेकान्त विचार पद्धति की समीचीनताका प्रतिपादन होते हुए कोई मुमुक्ष इस भ्रममें पड़ सकता है, कि सम्भवतः उसका इष्ट एकान्त
१. एकान्त दृष्टि, तत्व ऐसा ही है, कहती है। अनेकान्त दृष्टि कहती है
तत्त्व ऐसा भी है । 'भो' से सत्यका संरक्षण होता है, 'ही' से सत्यका संहार होता है।