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समन्वयका मार्ग स्याद्वाद
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किन्हीं वेदान्तियों का कथन है जैसे एक बिजलीका प्रवाह सर्वत्र विद्यमान रहता है, फिर भी जहाँ बटन दबाया जाता है, वहाँ प्रकाश हो जाता है, सर्वत्र नहीं । इसी प्रकार एक व्यापक ब्रह्मकं होते हुए भी किसीका जन्म, किसीका बुढ़ापा, किसीका मरण आदि होना न्यायविरुद्ध हूँ ।
साधतः स्पष्ट ही विद्युत्को सर्वत्र एक
इस समाधानपर सूक्ष्म विचार किया जाय तो इसकी जाती है। बिजलीका अविच्छिन्न प्रयाह देखकर भ्रमसे समझते हैं. यथार्थमें विद्युत् एक नहीं है । जैसे पानीके नलमें प्रवाहित होनेवाला जल बिन्दुपुंज रूप है। एक-एक बिन्दु पृथक-पृथक है। समुदाय रूप पर्याय होनेके कारण वह एक माना जाता है। यही न्याय बिजली जलते हुए बिजली और बुझे हुए बल्ब की विद्युत् प्रवाहको दृष्टिमे एकत्व होते हुए भी सूक्ष्म दृष्टिमें अन्तर है। भ्रमवश सदृशको एक माना जाता है। नाईके द्वारा पुनः पुनः बनाये जानेवाले वालोंमें पृथक होते हुए भो एकत्वकी भ्रान्ति होती हैं। इसी प्रकार ब्रह्मवादको एकत्वको भ्रान्ति होती है ।
विषयमें जानना चाहिए ।
अद्वैततके समर्थन में कहा जाता है 'मायाके कारण मे प्रतीति अपरमार्थरूपमें हुआ करती है ।" यह ठीक नहीं है; कारण मेश्को उत्पन्न करनेवाली माया यदि वास्तविक है तो माया और काईत उत्पन्न होता है । यदि माया अवास्तविक है, तो खरविषाणके समान वह भेद-बुद्धिको कैसे उत्पन्न कर सकेगी ?
अद्वैतके समर्थन में यदि कोई युक्ति दी जाती है, तो हेतु तथा साध्य रूप द्वैत आ जायगा । कदाचित् हेतुके बिना वचनमात्रसे अद्वैत प्ररूपण ठीक माना जाय, तो उसी म्यायसे द्वैत तत्व भी सिद्ध होगा। इसीलिए स्वामी समसमाने लिखा है-
" हेतोरद्वैत सिद्धिश्चेत् तं स्यात् हेतुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिः द्वैतं वाङ्मात्रतो न किम् ||२६||
-माप्तमीमांसा
अद्वैत शब्द जब इसका निषेधपरक है तो वह स्वयं द्वेतके सद्भावको सूचित करता हूँ । निषेध किये जानेवाले पदार्थके अभाव में निषेध नहीं किया जाता । अतः अद्वैत शब्दको दृष्टिसे द्वैत तत्त्वका सद्भाव असिद्ध नहीं होता ।
१. "अतशब्दः स्वाभिश्रेय भस्यनीकपरमार्थापेक्ष नम्पूर्वाखण्डपदत्वात् अहेत्वभिघानवत् । " --- अष्टसहस्त्री पृ० १६१ - बत शब्द अपने वाच्यके विरोधी परमार्थरूप ईटको अपेक्षा करता है, कारण बर्द्धत यह अखण्ड तथा नव् पूर्व अर्थात् निषेषपूर्व पद है । जैसे महेतु शब्द है ।