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जैनशासन मृत्यु मित्र उपकारी तेरो-इस अवसरके माहीं । जीरण तनसे देत नयो यह, या सम साह नाहीं ।। या सेती इस मुत्यु समय पर उत्सव अति ही कीजै । गलेश भाना सता भाव घरीजै ।'' अपनो आत्माको उत्साहित करते हुए साधक सोचता है
"जो तुम पूरब पुण्य किये हैं, तिनको फल सुखदाई। मृत्यु-मित्र बिन कौन दिखावै, स्वर्ग-सम्पदा भाई ।। कर्म महादुठ बरी मेरो ता सेती दुख पावें। तन-पिंजरमै बन्द कियो मोहि, यासों कौन छुड़ावै ।। भूख तृषा दुःख आदि अनेकन, इस ही तनमें गाढ़े ।
मृत्युराज अब आय दयाकर, तन-पिंजरसों काढ़े ॥" मृत्युको वह कल्पवृक्ष मानता है । इसलिए कहता है
"मृत्यु-कल्पद्म पाय सयाने, मांगो इच्छा जती।
समता धरकर मृत्यु करो तो, पाओ सम्पत तेती ।।" मृत्युको महाराना कहते हैं । मरण-कालको शुभ-यात्राका अवसर मानकर शकुन-शास्त्रको दृष्टिसे प्रस्थान निमित्त शुभ-सामग्रो संग्रहके लिए कवि सरचन्दजी कितने पवित्र और उद्बोधक विचार व्यक्त करते हैं
"जो कोई नित करत पयानो नामान्तर के काजे। सो भी शकुन विचार नीके, शुभके कारण साजे ।। मातपितादिक सर्व कुटुम मिलि, नीके शान बनावें । हलदी, धनिया, पुंगी, अक्षत, दूब दही फल लावें ॥ एक ग्राम आनेके कारण, कर शुभाशुभ सारे ।
जब परिगतिको करत पयानो, तब नहिं सोचो प्यारे॥' और भी समझाते हैं
सब कुटुम्ब जब रोवन लागै, तोहि रुलावे सारे । ये अपशकुन करै सुन तोकों, तू यों क्यों न विचारें ? अब परगतिको चालत बिरियां, धर्मध्यान उर मानो।
चारों आराधन आराधो मोहतनो दुःख हानों ।। मृत्यु के निधन साधक को निराली कल्पना होने के कारण अवर्णनीय विपत्तियोंके आनेपर भी वह सत्पग्रसे विचलित नहीं होता । यथार्थ में ऐसे साधकके आगे फोंको भी हार माननी पड़ती है । महाकवि गमभन इसीलिए कहते हैं