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अहिंसाके आलोकमें
किन्तु कारणविशेषसे महली मारनेको न जा सकनवाला मनस्ताप संयुक्त श्रीवरको शायद उदिसत रानेगा । हिम मिण के माम किसान उतना धिक क्षेपो नहीं है जितना वह घीवर' है। किसानकी दृष्टि जीववघको नहीं है, भले ही उसके कार्य में जीयोंकी हिंसा होती है । इसके ठीक विपरीत धौवरकी स्थिति है । उसकी आत्मा का हिसामे निमन्न है। यपि वह एक भी मछलीको सन्ताप नही दे रहा है । अतएव यह स्वीकार करना होगा कि यथार्थ अहिसका उदय , अवस्थिति और विकास अन्तःकरण वत्तिपर निर्भर है। जिस नाह्य प्रवृत्तिसे उस निर्मल वस्तिका पोषण होता है, उसे अहिंसाका अंग माना जाता है। जिससे निर्मलताका शोषण होता है, उस बाह्य वृत्तिको (भले ही यह अहिंसारमक दोस्खे) निर्मलताका घातक होने के कारण हिंसाको अंग माना है ।
देखो, रोगी के हितकी दृष्टिवाला डॉक्टर आपरेशन में असफलतानश दि किसीका प्रागहरण कर देता है. तो उसे हिराना नहीं माना जाता । हिंसाके परिपारके बिना हिसाका दोष नहीं लगता | कोई व्यक्ति अपने विरोधोरं प्राणहरण करनेको दृष्टिसे उसपर बन्दूक छोड़ता है और देववश निशाना चूकता है । ऐसी स्थिति में भी वह व्यक्ति हिंसाका दोषी माना जाता है, बोंकि उसके हिंसाके परिणाम थे। इसीलिए वह आजके न्यायालय में भयंकर दण्डको प्राप्त वारता है । इस प्रकाश में भारतवर्ष के धार्मिक इतिहास के लेखकका जैन अहिंसापर आक्षेप निर्मूल प्रमाणित होता है ।
उद्योगी हिसा वह है जो खेती, ज्यापार आदि जीविकाके उचित उपायोंके करन में हो जाती है । प्राथमिक साधक बुद्धिपूर्वक किसी भी प्राणीका धाप्त नहीं करता, किन्तु कार्य करने में हिंसा हो जाया करती है। इस हिंसा-अहिंसाकी मोमांसामें हिंसा करना' और 'हिंसा हो जाना' में अन्तर है । हिंसा करनेमे बुद्धि और मनोवत्ति प्राणघातकी ओर स्वच्छापूर्वक जाती है, हिसा हो जानेमें मनोवृत्ति प्राणघातकी नहीं है, किन्तु साधन तथा परिस्थिति विशेषवश प्राणघात हो जाता है। मुमुक्षु ऐसे व्यवसाय, अथवा वाणिज्य मे प्रधृत्ति करता है, जिनसे आत्मा मलिन नहीं होती, अतः क्रूर निम्दनीय व्यवसायमें नहीं लगता । न्याय तथा अहिसाका १. नतोऽपि कर्षकादुच्चः पापोऽनन्नपि धीवरः ।"
-सागारधर्मामल. १२। "अERन्नपि भवत्पापी, निघ्नन्नपि न पापभाक् । अभियानविशेषण यथा धीवरकर्षकी ।"
-शस्तिलक पूर्वार्ष, पृ० ५५१ । २. अध्याय ७।