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समन्वयका मार्ग स्याद्वाद
करता है उसी प्रकार अन्य पक्षको उचित बतानेवाली सामग्री की भी कमी नहीं है । शास्त्रोंके प्रमाण भी परस्पर विचित्रताओंसे परिपूर्ण हैं । एक ज्ञानी पुरुषकी लिखी बात प्रमाणित मानें और दूसरेकी नहीं, यह सलाह ठीक नहीं जँचती धर्मका स्वरूप मनुष्य की बुद्धिके परे है। वह है अथवा नहीं, नहीं कह सकते ! गड़रियेके नेतृत्व में जिस प्रकार भेड़ों का झुण्ड रहा करता है उसी प्रकार प्रभावशाली पुरुष अपने को अपनी ओर खींच लेता है । इस दृष्टिसे तो मानव जीवनकी जो विशेष शक्ति तर्कणा है, वह बिल्कुल अकार्यकारी हो जाती है। ऐसी निबिड़-निराशाको अवस्थामें भी जैनधर्मका अनेकान्तवाद अथवा स्याद्वाद नामका वैज्ञानिक चिन्तन पर्याप्त प्रकाश तथा स्फूर्ति प्रदान करता हूँ ।
सत्यका स्वरूप समझने में इरकी कोई बात हो नहीं हूँ । भ्रम, असामर्थ्य अथवा मानसिक दुर्बलताके कारण कोई बड़ा सन्त बन जोर कोई दार्शनिकके रूपमें या हमें रस्सीको साँप बता कराता हूँ। स्याद्वाद विद्या के प्रकाशमें साचक तत्काल जान लेता है कि यह सर्प नहीं रस्सी है— इससे डरनेका कोई कारण नहीं है ।
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पुरातनकालमें जब साम्प्रदायिकताका नशा गहरा था, तब इस स्याद्वाद सिद्धान्तको विकृत रूप-रेखा प्रदर्शित कर किन्हीं - किन्हीं नामांकित धर्माचार्योने इसके विरुद्ध अपना रोष प्रकट किया और उस सामग्री के प्रति 'बाबावाक्यं प्रमाणम् की आस्था रखनेवाला आज भी सत्यके प्रकाशसे अपनेको वंचित करता है । आनन्दकी बात है कि इस युग में साम्प्रदायिकताका भूत वैज्ञानिक दृष्टिके प्रकाशमें उतरा, इसलिए स्याद्वाद की गुण गाथा बड़े-बड़े विशेषज्ञ गाने लगे। जर्मन विद्वान् प्रो० हर्मन जेकोबीने लिखा है- " जैनधर्म के सिद्धान्त प्राचीन भारतीय तत्त्वज्ञान और धार्मिक पद्धतिके अभ्यासियोंके लिए बहुत महत्वपूर्ण है । इस स्याद्वादसे सर्व सत्य विचारोंका द्वार खुल जाता है ।" इण्डिया आफिस लन्दन के प्रधान पुस्तका लयाध्यक्ष डा० यामसके उद्गार बड़े महत्वपूर्ण है- "न्यायशास्त्रमें जैन न्यायका स्थान बहुत ऊंचा है। स्याद्वादका स्थान बढ़ा गम्भीर है। वह वस्तुओंकी भिन्नभिन्न परिस्थितियोंपर अच्छा प्रकाश डालता है।" भारतीय विद्वानोंमें निष्पक्ष आलोचक स्व० पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदीकी आलोचना अधिक उद्बोधक हैं"प्राचीन हरेके हिन्दू धर्मावलम्बी बड़े-बड़े शास्त्रीतक अब भी नही जानते कि जैनियोंका 'स्याद्वाद' किस चिड़ियाका नाम है। धन्यवाद है जर्मनी, फान्स बोर इंग्लैण्डके कुछ विद्यानुरागी विशेषज्ञोंको जिनकी कृपासे इस धर्म के अनुयात्रियों के कीर्ति-कलापकी खोज की ओर भारतवर्षके इतरजनों का ध्यान आकृष्ट हुआ । यदि ये विदेशी विद्वान् जैनोंके धर्मग्रन्थों की आलोचना न करते, उनके प्राचीन लेखकोंकी