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समन्वयका माग-स्याद्वाद
जीः" इस वाक्यमें 'स्यात्' शब्द जीवके अस्तित्व गुणको प्रधानतासे बताता है। इस प्रकार स्यात् शब्द द्वारा अनेकान्त और मम्यक एकान्तका बोध होता है।
यस्तूके अनन्त धोका जिन एकान्तिवोंको पता नहीं है, वे स्पाद्वाद विद्याका प्रतिपादन करनेमें ममर्थ न हो सके । भगवान् ऋषभदेवसे लेकर महावीर पर्यन्त चौबीम तीर्थकरोंने श्रेष्ठ साधनाके फलस्वरूप सर्वज्ञतावे सूर्यको प्राप्त किया और उसके प्रकाशमें स्थावाद विद्याका परिचय पायt 1 इसीलिए अफलहदेवने लधोयस्त्रय ग्रन्यके प्रमाणप्रवेश प्रकरणके प्रारम्भम तीर्थंकरोंको पुनः पुनः स्वात्मोपलब्धिके लिए प्रणाम करते समय 'स्याद्वादी' शब्दसे समलकृत किया है। कितना भाषपूर्ण मंगल श्लोक है---
___"धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वादिभ्यो नमो नमः।
ऋषभादिमहाबीरान्तेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ।।' इस स्याद्वाद-वाणीके आधारपर महापुराणकार भगवषिजनसेन जिनेन्द्र भगवान् में सर्वज्ञताका सद्भाव मूचित करते हैं । जिनेन्द्र वृषभनाथका स्तब करते हुए कहते हैं,२-"हे ईश, आपको सार्वत्रिकी वाणोकी पवित्रता आपके सर्वज्ञपनेको बताती है । इस जगत में इस प्रकारका महान वयन-वैभव अल्पों में नहीं दिखाई पड़ता है।" __"प्रभो, वक्त, ... जागणिकतार जान मा मानी शादी है। अपवित्र वक्ताके द्वारा उज्ज्वल वाणी नहीं उत्पन्न होती है।"
"आपकी विश्व विषयिणो सप्तभंग रूप भारती आपमें विशुद्ध आप्त्रप्रतिको उत्पन्न करने में समर्थ है।"
कवि धनंजय कहते हैं-"जिस प्रकार ज्वर-मुक्त व्यक्तिका बोध उसके १. "स्याज्ञीय एव इत्युक्तेऽनेकान्तविषयः स्याटम्दः । 'स्यादस्त्येव जीकः'
इस्युक्ते एकान्त विषयः स्या छन्दः ।"लघो०, पृ० २१ । २. "सार्वज्ञं तव वक्तीश वचःशुद्धिरशेषगा 1
न हि वाग्विभवो मन्दधियामस्तीह पुष्कलः ॥१३३॥ यस्तृप्रामाण्यतो देव वचःप्रामामिष्यते । न ह्यशुद्धतराद्वक्तः प्रभवन्स्यु ऊज्वला गिरः ॥१३४।। सप्तभंय्यात्मिकेयं ते भारती विश्वगोचरा । आप्तप्रसीतिममलां त्वय्युद्भावयितुं क्षमा ॥१३५।।"
-महापुराण, पर्व ३३ । ३. "नानार्थमेकार्थ मदस्स्वदुक्तं हितं वचस्ते निशमग्य वस्तुः । निर्दोषता के न विभावयन्ति ज्वरेण मुक्त: सुगमः स्वरेण ।।"
-विषापहार २९ ।