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जैनशासन
जगत् में मूकल्वको परिस्थिति का जाएगी ।" स्याद्वाद ऐसे मूकत्वका निराकरण कर सयुक्तिक व्यविरोधी सम्भाषणशीलताका मार्ग खोलता है । एकान्त पक्ष अंगीकार करनेसे लोक व्यवहार तथा यथार्थ दार्शनिक चिन्नाके लिए स्थान ही नही रहता ।
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सामञ्ञफलमुत्त के वाक्य मूलमें 'श्रमणों और ब्राह्मणोंके द्वारा' कहे गये हैं । इन शब्दोंके आधार ध्रुव महाशय स्याद्वादके विकृत रूपको जैनेतर स्रोतसे सम्बन्धित कहते हैं । किन्तु डा० ए० एम० उपाध्ये अपनी प्रथचनसारको भूमिका यह तर्क करते हैं "मूलमें आगत Recluses and Brahmins' में श्रमणके द्योतक 'Recluses' को विशेष ध्यानमें लाना चाहिए | श्रमण शब्द मुख्यतया जैनियों को घोषित करता है ।
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# इसका विश्वमान्य प्रमाण महाश्रमण भगवान् गोमटेश्वरको भुवनमोहिनी अत्यन्त समुन्नत दिगम्बर जैन मूर्तिसे अलंकृत मंसूरराज्यका श्रमणबेलगोला स्थल है | अतएव श्रमण शब्दका अन्य पर्यायवाची बतानेका प्रयास सत्य और निष्पक्ष विन्सना प्रतिकूल है
सूक्ष्म दार्शनिक चिन्तना तो इस विचारको पुष्ट करती है कि जिसने सर्वागीण सत्य-तत्त्वका दर्शन किया है, वही स्वाद्वाद विद्याका प्रवर्तक हो सकता है ।
१. "तर्ह्यस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि, यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्तु इति कश्चित् । सद्भावतराम्यामनमिलापे वस्तुतः केवलं मूकत्वं जगतः स्यात् विविप्रतिषेषव्यवहारायोगात् ।" - झष्टसहस्रो पू० १२९ ॥
"This deduction is based on the supposition that Syadvada had non-Jain beginnings as proposed by himself on account of its being attributed to 'Recluses and Brahmins,' The deduction is fallacious because as shown aboul the term recluse' a Sramana pre-eminently means a Jain."-Pravachanasara's Introduction P. LXXXVIII. ३. अत्यन्त प्राचीन जैनग्रंथ महाबन्धमें मुनिके लिए 'समय' शब्दका प्रयोग आया है । पू० १० णमो पव्ह समणाणं', पृ० ३६, सामाणं समाधिसंघारणदाए, सामाणं वेज्ञावच्चजोगनुत्तदाए, सामाणं पासुगपरिष्वागदाए ... महाबंघशास्त्र ।
४. दतिया रियासतका सोनागिर जैन तीर्थ यथार्थमें श्रमणगिरि ही तो है ।
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