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समन्वयका मार्ग-स्यादाद
एकान्त अपूर्ण दृष्टि सत्यको विकृत करने के सिवा क्या कर सकती है ? अन्धमण्डलने हाथीको स्तम्भ, सूप आदिके आकारका बता लहना प्रारम्भ किया था । परिपूर्ण हाथीको दर्शन करनेवाले व्यक्तिने ही अन्यमण्डलीके विवाद और भ्रमका रहस्य समझ समाधानकारी मागं बताया था कि प्रत्येकका कथन पूर्ण सत्य नहीं है, उममें सस्यका अंश है और वह कथन सत्यांश तभीतक माना जा सकता है, जब तक कि वह अन्य सत्यांशोंके प्रति अन्याय प्रवृत्तिका त्याग करता है। इसी प्रकार सकलश, सर्वदर्शी तीर्थररोंके सिवाय समन्तभद्रस्याद्वादतत्त्वज्ञानका निरूपण एकान्त दृष्टिवाले नहीं कर सकते । एकान्त सदोष दृष्टिमें स्याबाद के बोज मानना अज्ञतामें विज्ञताका बीज मानन सदृश होगा । वृक्षको देखकर बीनका दोष होता है । सुस्वादु पवित्र आनन्द और शान्तिप्रद स्यावाद वृक्षक बीज कटु, घुणित, एकान्तवादमै कैसे हो सकते है ?
अब हम सत्यानुरोधसे कुछ एकान्त दार्शनिक मान्यताओं का वर्णन करना उचित समझते हैं जिन्हें स्याद्वादरूपी रसायनके संयोग दिना जीवन नहीं मिल सकता ।
बौद्ध-दर्शन जगत् के सम्पूर्ण पदार्थोंको क्षण-क्षणमें विनाशी बता निस्पस्वको भ्रम मानता है । बौद्ध तार्किक कहा करते है..-'सर्व क्षणिवं सत्वात् । बौद्धदृष्टिको हम जमतमें चरितार्थ देखते हैं। ऐसा कौनसा पदार्थ है जो परिवर्तनके प्रहारसे बघा हो। लेकिन, एकान्त रूपसे क्षणिक तस्व माना जाय तो संसारमें बड़ी विचिय स्थिति उत्पन्न होगी। व्यवस्था, नैतिक उत्तरदायित्व आदिका अभाव हो जायगा। स्वामी समग्तमान कहते हैं--प्रत्येक क्षणमें यदि पदार्थका निरस्य नाश स्वीकार करोगे, तो हिंसाका संकल्प करनेवाला नष्ट हो जायगा
और एक ऐसा नवीन प्राणी हिंसा करेगा जिसने हिंसाका संकल्प नहीं किया। हिंसा करनेवाला भी नष्ट हो जायगा इसलिए बन्धनद्ध कोई अन्य होगा। दण्डप्राप्त भी नष्ट हो जायगा इसलिए वन्धन-मुक्ति किसी अन्यको होगी। इस प्रकारकी अव्यवस्था बौद्धोंके एकान्त क्षणिक सिद्धान्त द्वारा होगी । समन्तभद्र स्वामोका महत्त्वपूर्ण पद्य यह है
"न हिनस्त्यभिसन्धातृ हिनस्त्यनभिसन्धिमत् ।
बध्यते तद्वयापेतं चित्तं बद्ध न मुच्यते ॥५१॥" वे यह भी लिखते हैं कि
"क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः । प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम् ॥४१॥"
-आप्तमीमांसा