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जनशासन
और अभेद भी है इस प्रकार संकरदोष बताया जाता है। जिस अपेक्षासे भेद है उसी अपेक्षासे अभेद और जिस अपेक्षासे अभेद है उसी अपेक्षासे भेद है इस प्रकार व्यतिकर दोष होता है। वस्तुमै भेद और अभेदका वर्णन करनेसे यह निश्चय नहीं होता कि यथार्थमें उसका क्या रूप है इसलिए 'गंशय' दोष दिखता है । संशय होनेपर सम्भक परिज्ञान नहीं होगा, अतः उसका अभाव होगा। इस प्रकार अभाव दोष भी होता है । इस प्रकार प्रतिवादियोंने अनेकान्त सिद्धान्तपर उपर्युक्त दोषोंको अपनी दृष्टिसे लादनेका प्रयास किया है ।
उनका निराकरण करते हुए प्रतिभाशालो जन ताकिक मत्य-धर्मकी प्रतिष्ठा इस प्रकार स्थापित करते हैं कि-वस्तु में भेद और अभेदरूप धोकी प्रत्यक्षमें उपलब्धि होती है, तब इममें दोषकी क्या बात है? जब एक ही दृष्टिो सत्यअसरव, भेद-अभेद कहा जाग, तब विरोधको आपत्ति उचित कही जा सकती है । भिन्न-भिन्न दृष्टियोंसे एक ही वस्तुको हम ठंडा और गरम भी कह सकते हैं। एक आदमी अपने एक हाथको बहुत गर्म पानीमें डाले और दूसरेको हिमसदृश शीतल जलमें रखे, पश्चात् दोनों हाथोंको कुन-कुने पानी में डाले, सो पीतल जलवाला हाथ उस जल को अधिक उषण बताएगा और अधिक उष्णजलकाला हाप उस अलका शीतल सूचित करेगा। इस प्रकार भिन्न-भिन्न हाथोंकी दृष्टिसे जल एक ही समय शीत और उष्ण रूपसे अनुभवगोचर होता है। यह बात जब प्रत्यक्ष अनुभवमें आती है, सल विरोध और असम्भव दोष नहीं रहते । सत् और असत् धर्म एकही पदार्थमें पाये जाते हैं इसलिए वैयधिकरण्य दोष नहीं रहता । स्वरूपकी अपेक्षा वस्तुको सत् और पररूपको अपेक्षा असत् स्वीकार किया है। इसमें भी सहकारियोंके भेदसे शक्तिके अनन्त भेद हो जाते हैं । अनम्त धर्मात्मक वस्तु होनेसे यह यथार्थ है, अतः अनवस्था दूषण घराशायी हो जाता है। सत्त्व और असत्त्व अथवा भेद-अभंद दृष्टियोंको भिन्न-भिन्न अपेक्षाओंसे कहते है । पिताकी अपेक्षा पुत्र है, भाई आदिकी अपेक्षा पुत्र नहीं है । इस प्रकार एक व्यक्तिमें पुत्रपनेका सद्भाव और असद्भाव दोनों पाये जाते है । इस प्रत्यक्ष अनुभव प्रकाशमें संकर और व्यतिकर दोष भी नहीं रहते । वस्तुका स्वरूप स्वरूप-चतुष्टयको अपेक्षा अस्तिरूप ही है और अन्य चतुष्टयकी अपेक्षा असत् रूप ही है, ऐसौ निश्चित शानकी अवस्थामें संशयदोष मो नहीं रहता। अनेक धर्ममय वस्तु-स्वरूपकी उपलब्धि होनेसे अभावदोषका अभाव हो जाता है। शंकराचार्यने सुदृढ़ तर्कपर अवस्थित स्याद्वाद के प्रासादपर आक्रमण न कर अपनी मनोनीत कल्पना-मय कुटीरको स्याद्वादका नाम दे तास्त्रोंसे ध्वस्त करनेका प्रयत्न किया है। इसलिए स्थावाद विद्वेषियोंकी भ्रान्त बुद्धिका परिचय कराते हुए