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जैनशापन
इकट्टी करनेमें धर्मको तिलांजलि दे दी है और शक्ति संचित करने में स्नेहका परित्याग कर दिया है ।" इसलिए विनाणसे बचने के विषयमें उनका कथन है, "वह पथ है आत्मविजयका पथ । वह पथ है त्याग और सेवाका पथ । बह पथ है भारतको प्राचीनतम संस्कृतिका पच' (ता० १२-१२-१९४७) यह आत्म विस्मृतिका ही दुष्परिणाम है, जो लोग निरंकुश हो पशुवधर्म प्रवृत्त हो, स्वार्थसाधना निमित्त मनुष्यके जीवनका भी मूल्य नहीं आंकते, और नरसंहारकारी कार्यों में भी निरन्तर लगे रहते हैं । मांसभको लोग तो कहते है-गायमै आत्मा नहीं है-(A cow has no soul). किन्तु स्वायौं विपक्षी वर्ग में भी आरमा नहीं मानता हुआ प्रतीत होता है। आज जिस उन्नति का उच्च नाद सर्वत्र सुन पड़ता है, वह आत्म-जागरण अथवा सच्ची जीव-रक्षाकी उन्नति नहीं है, किन्तु प्राणघातके कुशल उपायोंकी वृद्धि है। डा० कम्बालकी उक्ति कितनी यथार्थ है:
"जान ही लेनेकी हिकमत में तरक्की देखी।
मौतका रोकनेवाला कोई पैदा न हुआ ?" मौत के मुंहसे बचा, अमर जीवन और आनन्दपूर्ण ज्योतिको प्रदान करनेको श्रेष्ठ सामर्थ्य और उच्च कला अहिंसामें विद्यमान है।
इस अहिंमाकी साधना के लिए इस प्राणीको अपनी अधोमुखो वृत्तियोंको उर्वगामिनी बनानेका उद्योग करना पड़ता है । साधारणतया अल नीचेकी ओर जाता है । उसे ऊंची जगह भेजनेको विशेष उद्योग आवश्यक होता है, उसी प्रकार जीवको प्रवृत्तिको समुन्नत बनाना श्रम और साधनाके द्वारा हो साध्य होगा; सुमधुर भाषणों, मोहक प्रस्तावों या वाह्य विशिष्ट वस्त्रादि धारणसे यह काम नहीं होगा। श्री कालेलकर महाशयका कथन विशेष आकर्षक है:-"बिना परिश्रम किए हम अहिंसक नहीं बन सकेंगे । अहिंसाकी साधना बड़ी कठिन है। एक और पौद्गलिक भाव खींच-तान करता है, तो दूसरी और आत्मा सप्रेस बनता है । शरीर प्रथम विचार करता है, आत्मा उत्कर्षका चिन्तन करता है। दूसरोंका हित हृदएमें रहने से आत्मा धार्मिक श्रद्धावान बनता है 1 आम देखते है, तो पता चलता है कि सब राष्ट्र मुद्धसे पृथक रहना चाहते हैं, पर साथ ही साथ युद्धको सामग्री भी पूरे जोरसे जुटाते फिरते हैं ।" ऐसी विकट स्थिति में परिप्राण का क्या उपाय होगा, इस सम्बन्धमें वे कहते है, "आजकी मानवताको युद्धके दावानलसे मुक्त करने का एकमात्र उपाय भगवान महावीरको अहिंसा हो है।" शुभचन्नाचार्य कहते हैं-- १. 'जन' भावनगर सन् १९४९