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जैनशासन
सदृश हिसास्मक बलिके समर्थक शास्त्रमें भी निम्नलिखित श्लोक छनेजल ग्रहणका समर्थक पाया जाता है:
"दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।
सत्यपूतां वदेद् वाचं, मन:पूतं समाचरेत् ।।" ६१४६ । गर्म : AFFE :स धजिसे है जो मानसिक निर्मलता एवं आत्मीय स्वास्थ्यका संरक्षण करे | साधनाले पथमें मनुष्यका जैमा-जैसा विकास होता जाता है, वैसे-जैसे वह अपनी चर्या प्रयत्तिको सात्त्विक प्रबोधक और संवर्धक बनाता है। जिन पदापोंसे इन्द्रियोंकी लोलुपता बढ़ती हैं, उच्च साधनाके पथमें उनका परिहार बताया गरा है। भोजनकी पवित्रता जिस प्रकार उज्य साधकके लिए आवश्यक है, उसी प्रकार जलविषयक विशुद्धता भी लाभप्रद है । जैसे रोगी व्यक्तिको वैद्य उष्ण किए हुए जल देनेकी सलाह देता है क्योंकि वह पिपासाका वर्धक नहीं होता, दोषोको शमन करता है, अग्निको प्रदीप्त करता है और क्या-क्या लाभ देता है, यह छोटे-बड़े सभी वंद्य बसावंगे । आरमाको स्वस्थ बनाने के लिए यह सावधान रहता है कि-'शरीरं च्याधिमन्दिर' न बने और स्वास्थ्यसदन रहे, तो तमः साधना, लोकहित, ब्रह्मचिन्तन आदि कार्योंमें बाघा नहीं पाएगी । अन्यथा रोगाकान्त होनेपर--
"कफ-वात-पित्तेः कण्ठावरोधनविधौ स्मरणं कुतस्ते ।" वाली समस्या आए बिना न रहेंगी ।
, आत्मनिर्मलताक लिए शरीरका नौरोग रखना साधकके लिए इष्ट है और शारीरफी स्वस्थताके लिए शुद्ध आहार-पान वांछनीय है। इसलिए स्वास्थ्यवर्धक आहारपानपर दृष्टि रखना आमीक निर्मलताको दृष्टि से आवश्यक है । उष्ण जल तेयार करने में स्थूल प्टिसे जलस्य जीवोंका तो ध्वंस होता ही है साथ ही अग्नि आदिके निमित्तसे और भी जीवोंका घात होता है । किन्तु, इस हिंसाक होते हुए भी मानसिक निर्मलता, नीरोगता आदिकी दृष्टि से इच्च साधकको गरम किया हुमा जल लेना आवश्यक बताया है। यदि बाह्म हिंसाके सिवाय मनःस्थितिपर दृष्टि न डाली जाय तो संसारमें बड़ी विकट व्यवस्था हो जाएगी और तत्त्वज्ञानकी बड़ी उपहासास्पद स्थिति होगी। अमृतचन्द्र प्राचार्य ने लिखा है, कि अहिंसाका तत्त्वज्ञान अतीद गहन है और इसके रहस्यको न समझनेवाले अझोंके लिए सद्गुरु ही शरण हैं जिनको अनेकान्त विद्याके द्वारा प्रबोध प्राप्त होता है।
प्राणघातको ही हिंसाकी कसौटी समझनेवाला, खेतमें कूपि कर्म करते हुए अपने हल द्वारा अगणित जीवोंको मृत्युफे मुम्ल में पहुँचानेवाले किसानको बहुत बड़ा हिसक समझेगा और प्रभातमें जगा हुआ मछली मारनेकी योजना में तल्लीम