Book Title: Jain Shasan
Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 128
________________ १२० जैनशासन __ हिंसाका तुतीय भेद आरम्भी हिंसा कहा जाता है । जीवन-यात्राके लिए शरीररूपी गाड़ी चलाने के लिए उचित रीतिसे उसका भरण-पोषण करने के लिए आहार-पान आदिके निमित्त होनेवाली हिंसा आरम्भी हिंसा है । शुद्ध भोजनपानका आत्म-भावोंके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है; यह बात पहिले स्पष्ट की जा चुकी है । हितोपदेशमें हरिण पाके द्वारा शुद्ध-आहारके सम्बन्धमें एक महत्त्वपूर्ण पद्य आया है "स्वच्छन्दवनजातेन शाकेनापि प्रपूर्यते । अस्य दग्धोदरस्यार्थे कः कुर्यात् पातकं महत् ।।" जब स्वच्छन्दरूपसे वन में उत्पन्न वनस्पतिके द्वारा उदर-पोपण हो सकता है तक इन दग्ध-उदर के लिए कौन बड़ा पा करे ? जिनके प्राग रसना इन्द्रिय नसते हैं, वे तो इन्द्रियके दास बन बिना विवेकके राक्षस सदृश सर्वभक्षी बननेमे नही चकते । मय, मांसादि द्वारा शरीरका पोपण उनका ध्येय रहता है। अनेक प्रकार के व्यजनादिसे जिह्नाको लांचसो देकर अधिक-से-अधिक परिमाणमें भोग्य सामग्री उदरस्थ की जाती है । पशुजगत्के आहारपानमें भी कुछ मर्यादा रहती है, किन्तु भोगी मानव ऐसे पदार्थों तकको स्वाहा करने से नही चुकता, जिनका वर्णन सुन सात्विक प्रवृत्तिवालोंको वेदना होती है। सम्राट अकबरका जीवन जब जैन संत हीरविजय सरि आदिके सत्संगसे अहिंसा भावसे प्रभावित हुआ तब अबुलफजलके शब्दों में सम्राट की श्रद्धा इस प्रकार हो गई-It is not right that a man should make his stomach the grave of animalsपह उचित बात नहीं है कि इन्सान अपने पेटको जानवरोंकी का बनाये (Ain-i-Akabari Vol. 3, BK V. P. 380) यवन सम्राट अकबरने अपने जीवनपर प्रकाश डालते हुए यह भी कहा है-"मांस-भक्षण प्रारम्भसे ही मुझे अच्छा नहीं लगता था, इससे मैंने उसे प्रागिरक्षाका संत समझा और मैंने मामाहार छोड़ दिया ।'' बौद्ध वाङ्मय में, बुद्ध-देवके 'शुकर-महद' भक्षणका उल्लेख पा 'शुकरका मांस बुद्धने खाया' मह अर्थ, मालूम होता है चीन और जापानने हृदयंगम किया 1. "Frou my earliest years whenever I orciered animal food to be cooked for me, I found it rather tasteless and cored little for it, I took this (veling to indicate a necessity for protecting animals and I refrained from animal food."---Ain-j-Akabari) Quoted in English Jain Gazette. P. 32 Vol XVII.

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