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जनशासन
करनेका, अपने जीवन निर्माणका है । एकका लक्ष्य जहाँ जननको विगाहना है, वहाँ दुसरेकी दृष्टि जीवनको बनाने और सम्हालनेको रहती है । पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि में इस विषयको इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि किसी गृहस्थक घरमें बहुमूल्य वस्तुएं रखी है; भीषण अग्निसे वह घर जलने लगा। यथाशक्ति उपाय करनपर बढ़ती ही जा रहे है। साधार निाितिम चतुर व्यक्ति मकानका ममत्व छोड़ अपनी बहुमूल्य सुवर्ण-रत्नादि सामग्रोको बचाने में लग जाता है । उस गृहस्थको मकानका ध्वंसक समझना ठीक नहीं है। कारण जबतक बा चला, उसने रक्षाका ही प्रयत्न किया। किन्तु जब रक्षा असम्भव हो गई, तब कुशल व्यक्ति होनेके नाले अपनी बहुमूल्य सामग्रीका रक्षण करना उसका कर्तव्य हो गया । इसी प्रकार साधक रोगादिसे हरीरादिक आक्रान्त होने पर सहसा समाधिमरणको ओर दौड़ नहीं जाता-वह तो मानव शरीरको आत्मजायतिका विशिष्ट साधन समझ अधिकसे अधिक समयत क अवस्थित देखना चाहता है। किन्तु जब ऐसी निकट अवस्था आ जाए कि शरीरकी सुधि-बुधि लेनेपर आत्माकी सुधि-बुधि न रहे, तब वह अपने सद्गुणों, अपनी प्रतिमाओं तथा अपनी आत्माको रक्षाके लिए उद्यत हो क्रोध, मान, माया, लोभादिका त्यागकर साम्यभावसे भूपित हो मृत्युराजका स्वागत करनेके लिए तत्पर हो जाता है । वह अखण्ड शान्तिका समुद्र बन जाता है । स्नेह, वर, मोह आदि उसके पास तनिक भी नहीं फटकाने पाते । ऐसी स्थिति समाधिमरण और आत्मघातमें उतना ही अन्तर है जितना आत्म-बली दिगम्बर मुनि और दुर्भाग्यवश वस्त्रादि न पाने वाले दैन्यको मति किसी दीन भिन्नारी ।
स्वाग समन्तभाने लिखा है---
''उपसर्ग, दुभिक्ष, बुढ़ापा अथवा रोगके निष्प्रतीकार हो जानेपर आत्मपवित्रताके लिए शरीरका त्याग करना समाधिमरण है ।"
इस विषय का विस्तृत विवेचन भगवती माराधना नामक घमणर्या समझानेवाले ग्रन्यमें किया गया है। सर्वार्थसिद्धिकी निम्न पंक्तियाँ संक्षेपमै इस विषयको भली प्रकार स्पष्ट करती है
रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशादात्मानं ध्नतः स्वघातो भवति न सल्लेखमां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति, ततो नात्मवधदोषः ।" -सर्वार्थसिद्धि अ ७ सू० २२ । १. "उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां व निःप्रतीकारे । धमयि सविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।।"
-रत्नकरण्डश्रावकाचार १२२ 1