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अहिंसाके आलोकमें
१०९ नहीं । परिस्थिति, बातावरण और शापिसको ध्यान में रखते हुए महर्षियोंने अहिसात्मक साधनाके लिए अनुजा दी है। कहा भी है
"जं सक्कइ तं कीरइ ज य ण सक्काइ तहेव सद्दणं ।
सदहमाणो जीवो पावइ अजरामरं ठाणं " जितनी शक्ति हो उतना आचरण करो, जहाँ शक्ति न चले, श्रद्धाको मागृत करो । कारण श्रद्धावान् प्राणी भी अजर अमर पदको प्राप्त करता है।
अहिंसाका अर्थ कर्तव्यपगारणता है । गृहस्थस्से मुनितुल्य श्रेष्ठ अहिंसाको आशा करनेपर भयंकर अव्यवस्था उत्पन्न हुए बिना न रहेगी। इस युगकी सबसे पूज्य विभुति सम्राट भरतके पिता आदि अवतार ऋषभदेव तीर्थकरने जब महामुनिका पद स्वीकार नहीं किया था और गृहस्थशिरोमणि थे--प्रजाके स्वामो थे तब प्रजापालका नरेशके नाते अपना कर्तव्य पालन करने में उन्होंने तनिक भी हमाद नहीं दिखाया । स्वामी समन्तभनके शब्दों में उन्होंने अपनी प्यारी प्रजाका कृषि आदि द्वारा जीविकाके उपायकी शिक्षा दी । पश्चात् तत्त्वका बोध होनेपर अद्भुत जदयमुक्त उन ज्ञानवान् प्रभुने ममताका परित्याग कर विरक्ति धारण की। जब ने मुमुक्षु हुए तब तपस्वी बन गए।' इससे इस बातपर प्रकाश पड़ता है कि ऋषभदेव भगवान्ने प्रजापतिको हैसियत दीन-दुखी प्रमाको हिसाबहल खेतो आदिका उपदेश दिया कर्तव्य पालनमें वे पीछे नहीं हटे। मुक्तिको प्रबल पिपासा जाग्रत होनेपर सम्पूर्ण वैभवका परित्याग कर उन्होंने मनि-पद अंगीकार किया तथा कोको नष्ट कर डाला ।
__ भगजिनसेनने लिखा है कि-प्रजाके जीवननिमित्त भगवान् आदिनाथ प्रभुने गृहस्थोंको शस्त्रविद्या, लेखन-फला, कृषि, वाणिज्य, संगीत और शिल्पकलाकी शिक्षा दी थी---
"असिमषि: कृषिविद्या वाणिज्य शिल्पमेव च । कर्माणीमानि कोठा स्युः प्रजाजीवनहेतवे ॥" ।
-कादिपुराण पर्ष १६ अहिंसक गृहस्थ बिना प्रयोजन इरादापूर्वक तुष्ट-से-तुच्छ प्राणीको कष्ट नहीं पहुंचाएगा, किन्तु कर्तव्यपालन, धर्म तथा न्यायके परित्राण-निमित्त वह यथावश्यक अस्त्र-शस्त्रादिका प्रयोग करनेमे भी मुख न मोडेगा। आचार्य सोमदेव ने शस्त्रोपजीवी क्षत्रियों को अहिंसाका व्रती इस तर्क द्वारा सिद्ध किया है१. 'प्रजापतिर्यः प्रयम जिजोविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । मुमुक्षरिक्ष्वाकुकुलादिरात्मवान् प्रभुः प्रभवाज सहिष्णुरच्युतः ॥"
- स्त्रयम्भूस्तोष २३ ।