________________
११२
पंचाध्यामोमें लिखा है
जैनशासन
"वात्सल्यं नाम दासत्वं सिद्धाविवेश्मसु । संघे तु शास्त्रे स्वामिकार्ये सुभृत्यवत् ॥ अर्थादन्यतमस्योच्चैरुद्दिष्टेषु सुदृष्टिमान् । सत्सु बोरोपaiy उत्परः स्थासदत्यये !! यहा न ह्यात्मसामर्थ्यं यावन्मन्त्रासिकोशकम् । तावद् द्रष्टुं च श्रोतुं च तदबाधां सहते न सः ॥” ८०८-१०
सिद्ध, अरिहन्त भगवान्को प्रतिमा, जिनमन्दिर, मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका रूप घतुविष संघ तथा शास्त्रकी रक्षा, स्वामीके कार्य में तत्पर मुग्य सेवक के समान करता, वास्सत्य कहलाता है। इनमें से किसी पर घोर उपसर्ग होनेपर सम्यग्दृष्टिको उसे दूर करने के लिए तत्पर रहना चाहिए । अथवा जब तक अपनी सामर्थ्य है तथा मंत्र, शस्त्र, द्रव्यका बल है, तब तक वह तत्त्वज्ञानी उन पर आई बघाको न देख सकता है और न सुन सकता है ।
सोलहवें तीर्थकर भगवान् शान्तिनाथने अपने गृहस्थ जीवनमें चक्रवर्ती के रूप में दिग्विजय की थी । हाम्रो समन्तभद्रने बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र में क्या ही मार्मिक वर्णन किया है-
"चक्रेण यः शत्रुभयङ्करेण जित्वा नृपः सर्वनरेन्द्रचक्रम् । समाधिचक्रेग पुनजिगाय महोदयो दुर्जयमोह चक्रम् ||
अर्थात् जिन शान्तिनाथ भगवान्ने सम्राट्के रूपमें शत्रुओंके लिए भीषण चक्र अस्त्र द्वारा सम्पूर्ण राजसमूहको जीता था; महान् उदयशाली उन्होंने समाधिध्यानरूपी चक्रके द्वारा बड़ी कठिनता से जीतने योग्य मोहदलको पराजित किया ।
गृहस्य जीवनको असुविधाओं को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक साधक की अपेक्षा उस हिंसा के संकल्पी विरोधी, आरम्भी और उद्यमी चार भेद किये गये हैं । संकल्प निश्षय या इरावा (Intention ) को कहते हैं। प्राणघातके उद्देश्यसे की गई हिंसा संकल्प हिंसा कहलाती है। शिकार खेलना, मांस भक्षण करना सदृश कार्यों में संकल्पी हिंसाका दोष लगता है। इस हिंसा में कृत, कारित अथवा अनुमोदना द्वारा पापका संषय होता है। साधकको इस हिंसाका त्याग करना आवश्यक है। विरोधी हिंसा तब होती है, जब अपने ऊपर आक्रमण करनेवाले पर आत्मरक्षार्थ शस्त्रादिका प्रयोग करना आवश्यक होता है। जैसे अन्याय वृद्धि से परराष्ट्रवाला अपने देशपर आक्रमण करें उस समय अपने काश्रितोंकी रक्षा के लिए संग्राम में प्रवृति करना। उसमें होनेवालो हिंसा विरोधी हिंसा है । प्राथमिक साधक इस प्रकारकी हिंसा से बच नहीं सकता । यदि वह आत्मरक्षा